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________________ अ०११ / प्र०४ षट्खण्डागम / ६५१ श्वेताम्बर तथा यापनीय आम्नायों में भी स्त्री को तीर्थंकरपद प्राप्त करने योग्य नहीं माना गया है, जैसा कि प्रवचनसारोद्धार की निम्नलिखित गाथा से स्पष्ट है अरहंत-चक्कि -केसव-बलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा। गणहर-पुलाय-आहारगं च न हु भवियमहिलाणं॥ १५०६॥ अनुवाद-"भव्य स्त्रियाँ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, संभिन्न (श्रोता), चारणऋद्धि, चौदहपूर्वित्व, गणधर, पुलाक तथा आहारक, ये दस अवस्थाएँ प्राप्त नहीं कर सकतीं।" श्वेताम्बरपरम्परा में जो मल्लिनाथ भगवान् के स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर होने की मान्यता है, वह कर्मसिद्धान्त पर आश्रित नहीं है, अपितु उसे एक अछेरा अर्थात् नियमविरुद्ध आश्चर्यजनक घटना माना गया है। यापनीय भी श्वेताम्बर-आगमों को मानते थे, अतः वे भी उपर्युक्त सिद्धान्त का अनुसरण करते थे। इस प्रकार चूँकि दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय, तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री के तीर्थंकर होने का निषेध है, अतः स्पष्ट है कि षट्खण्डागम के उपर्युक्त तीर्थंकरप्रकृतिबन्ध-प्रतिपादक सूत्र में मणुसिणी शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री के अर्थ में न होकर भावस्त्री के अर्थ में हुआ है, अर्थात् ऐसे पुरुष के अर्थ में हुआ है, जो केवल शरीर से पुरुष है, भाव से पुरुष नहीं है, अपितु भाव से स्त्री है। तात्पर्य यह कि षटखण्डागम के अनुसार भावस्त्री को ही तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध हो सकता है, द्रव्यस्त्री को नहीं, वह भी उपशमकश्रेणी में ही, क्षपकश्रेणी में नहीं। यह षट्खण्डागम में वेदवैषम्य की स्वीकृति तथा तदाश्रित भावस्त्री-द्रव्यपुरुष-वाचक 'मणुसिणी' शब्द के प्रयोग का उदाहरण १०.७. ष. खं. में नपुंसकवेदी मनुष्य को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कथन षट्खण्डागम के उपर्युक्त सूत्र (पु.८/३,७५) में ही 'मणुस' शब्द 'भावपुरुषवेद और भावनपुंसकवेद के उदय से युक्त 'मनुष्य' अर्थ का वाचक है। जयधवला में भी 'मणुस' शब्द का यह अर्थ स्पष्ट किया गया है।११५ अतः उक्त सूत्र में नपुंसकवेदी मनुष्य को भी तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध बतलाया गया है। तथा षट्खण्डागमबन्धस्वामित्वविचय (पुस्तक ८) के सूत्र १६९, १७० तथा १७७ में भी नपुंसकवेदी ११५. "मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिस-णqसयवेदोदइल्लाणं गहणं। मणुस्सिणी त्ति वुत्ते इत्थिवेदोदय जीवाणं गहणं।" जयधवला / कसायपाहुड / पु.३/३,२२/४२६ / २४१ / १२ / (जै.सि.कोश ३/५८६)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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