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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ५९१ के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है।" (जै.ध.या.स./ पृ.४११)। इस प्रकार श्वेताम्बरमत में मिथ्यादृष्टि को भी मोक्ष के योग्य माना गया है, जो तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस पहले ही सूत्र के विरुद्ध है तथा षट्खण्डागम की गुणस्थान-व्यवस्था के भी विपरीत है। क्योंकि षट्खण्डागम में मिथ्यादृष्टि को मोक्ष के योग्य नहीं माना गया है, अपितु जो जीव मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान छोड़कर सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान प्राप्त कर लेता है फिर क्रमशः संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, क्षीणमोह और सयोगकेवली गुणस्थानों पर आरोहण करता हुआ अयोगिकेवलीगुणस्थान में पहुँचता है, उसे ही मोक्ष के योग्य बतलाया गया है। इस चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त किये बिना कोई भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, यह षट्खण्डागम का स्पष्ट निर्देश है। इस ग्रन्थ के निम्नलिखित सूत्रों में मोक्ष के उपर्युक्त क्रम का वर्णन किया गया है, जिनमें अयोगिकेवलिगुणस्थान के अन्त में ही सिद्ध पद की प्राप्ति बतलायी गयी है "ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी। सासणसम्माइट्ठी। सम्मामिच्छाइट्ठी। असंजदसम्माइट्ठी। संजदासंजदा। पमत्तसंजदा। अप्पमत्तसंजदा। अपुव्वकरण-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अस्थि उवसमा खवा। अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अस्थि उवसमा खवा। सुहुम-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा। उवसंत-कसाय-वीयरायछदुमत्था। खीणकसाय-वीयरायछदुमत्था। सजोगकेवली। अजोगकेवली। सिद्धा चेदि।" (ष.खं./ पु.१ / १,१,९-२३)। षट्खण्डागम के बन्धस्वामित्वविचय नामक तृतीयखण्ड (पुस्तक ८ / सूत्र ३५३८) में बतलाया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव बन्धयोग्य १२० कर्मप्रकृतियों में से आहारकशरीर, आहारक-शरीराङ्गोपाङ्ग तथा तीर्थंकर इन तीन को छोड़कर शेष समस्त प्रकृतियों का बन्धक होता है। उसके संवर और अविपाकनिर्जरा एक भी प्रकृति की नहीं होती। ___ जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में निर्दिष्ट है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान तक केवलज्ञान का अभाव रहता है। केवल सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध अवस्थाओं में ही केवलज्ञानी होते हैं। (ष.खं./ पु.१/१,१,१२२)। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में संयम का अभाव भी बतलाया गया है। संयत जीव केवल प्रमत्तसंयत-गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली-गुणस्थान तक होते हैं-"संजदा पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति।" (ष.खं./ पु.१ /१,१,१२४)। मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में मिथ्यात्व के साथ कषायें भी प्रायः सभी की सभी उदय में रहती हैं, जिससे वीतरागभाव For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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