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________________ ५८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०४ खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में यथाक्रम से किया गया है। परन्तु प्रज्ञापना में आध्यात्मिक उत्कर्ष को लक्ष्य में रखकर उसका कुछ भी विचार नहीं किया गया। यहाँ तक कि उसमें गुणस्थान का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है" (षट्.परि./पृ.२४१-२४२)। __"प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् जिनेन्द्र ने मुमुक्षुजनों को मोक्षप्राप्ति के निमित्त प्रज्ञापना का उपदेश किया था। परन्तु वर्तमान प्रज्ञापना ग्रन्थ में उस मोक्ष की प्राप्ति को लक्ष्य में नहीं रखा गया दिखता। कारण यह है कि मोक्षप्राप्ति के उपायभूत जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, उनका उत्कर्ष गुणस्थानक्रम के अनुसार होता है। परन्तु प्रज्ञापना में उन गुणस्थानों का कहीं कोई विचार नहीं किया गया। इतना ही नहीं, गुणस्थान का तो वहाँ नाम भी दृष्टिगोचर नहीं होता।" (षट्.परि./ पृ.२५७)। इस प्रकार डॉ० सागरमल जी एवं पण्डित बालचन्द्र जी शास्त्री, दोनों के उपर्युक्त वक्तव्यों से स्पष्ट है कि श्वेताम्बर-आगमों में गुणस्थानसिद्धान्त का अभाव है। इस सिद्धान्त के आधार पर न उनमें कर्मसिद्धान्त का विवेचन है, न ही जीवों में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र के अभाव, सद्भाव, और उत्तरोत्तर उत्कर्ष का विवेचन किया गया है। यापनीयसम्प्रदाय की सम्पूर्ण सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि श्वेताम्बर आगमों पर ही आश्रित थी, अतः स्पष्ट है कि उनका सैद्धान्तिक चिन्तन भी गुणस्थानसिद्धान्त का अनुगामी नहीं था। हो भी नहीं सकता था, क्योंकि यह सिद्धान्त उनकी गृहस्थमुक्ति और अन्यतैर्थिकमुक्ति की मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध है। इसका निरूपण आगे किया जा रहा है। गुणस्थानसिद्धान्त सर्वज्ञोपदिष्ट, विकसित नहीं प्रसंगवश यहाँ इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि श्वेताम्बरआगमों में जो गुणस्थानसिद्धान्त का अभाव है, उससे बन्ध और मोक्ष की सम्पूर्ण प्रणाली अव्यवस्थित हो गई है। आत्मपरिणामों और कर्मप्रकृतियों के आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष में किसी नियम का सद्भाव न होने से गृहस्थ-अवस्था में रहते हुए भी अर्थात संयम के अभाव में भी मक्ति मान ली गयी है। यहाँ तक कि परतीर्थिक के मिथ्यादर्शनादिरूप परिणामों को भी कर्मक्षय का कारण मान लिया गया है। आत्मपरिणामों और कर्मपरिणामों के बीच की इस अव्यवस्था या अनियमितता पर डॉक्टर सा० की दृष्टि गई है, जिससे उन्हें श्वेताम्बर-आगमों में प्रतिपादित मोक्षमार्ग की अयुक्तिसंगतता Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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