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________________ ५५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०२ __इसका खुलासा पण्डित जी ने अपने लेख में आगे किया है। पण्डित जी का यह लेख शोधपूर्ण है और इससे इस बात की पुष्टि होती है कि परिकर्म ग्रन्थ का अस्तित्व था और उसके कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द थे। फिर भी यदि यह माना जाय कि कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ नहीं लिखा, तो भी वे निम्नलिखित कारणों से षट्खण्डागम के रचनाकाल से उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं १. 'नमो अरहंतानं। नमो सवसिधानं' इस खारवेल के हाथीगुम्फाभिलेख-गत शिलालेखीय प्राकृत में निबद्ध द्विनमस्कारमंत्र के पश्चात् शौरसेनी प्राकृत में णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥१३ इस पञ्चनमस्कार मंत्र की सर्वप्रथम रचना षट्खण्डागम में हुई है। इसके आदिकर्ता आचार्य पुष्पदन्त ही हैं,१४ इसका स्पष्टीकण टीकाकार वीरसेन स्वामी ने निम्न शब्दों में किया है "तं च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि। तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवता-णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं। जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण ण णिबद्धो देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं। इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं, 'एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध-'णमो अरिहंताणं' इच्चादि-देवदा-णमोक्कार-दसणादो।" (धवला / ष. खं./ पु.१ / १, ११ / पृ.४२)। __ अनुवाद-"वह मंगल दो प्रकार का है : निबद्ध और अनिबद्ध। ग्रन्थ के आदि में ग्रन्थकार जो स्वरचित पद्य के द्वारा देवता को नमस्कार करता है, उसे निबद्धमंगल कहते हैं। तथा जो पर-रचित पद्य के द्वारा देवतानमस्कार किया जाता है, वह अनिबद्धमंगल कहलाता है। यह जीवस्थान नाम का प्रथम खण्डागम निबद्ध-मंगलवाला है, क्योंकि इसके 'इमेसिं चोइसण्हं जीवसमासाणं' इस सूत्र के आदि में णमो अरिहंताणं इत्यादि देवता-नमस्कार ग्रन्थकार द्वारा निबद्ध दिखाई देता है।" इससे स्पष्ट है कि षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड 'जीवस्थान' के प्रथमसूत्र के रूप में जो पंचणमोकार मंत्र निबद्ध है, वह षट्खण्डागम के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त के द्वारा ही रचा गया है। वे ही इस महामंत्र के आद्यकर्ता हैं। अतः आचार्य कुन्दकुन्द १३. षट्खण्डागम / पुस्तक १/१,१,१/ पृष्ठ ८। १४.षट्खण्डागम / पु.१ / सम्पादकीय / पृष्ठ ५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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