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________________ ५३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०८ है, जिनका कि भद्रबाहु ने अपनी नियुक्ति में नामोल्लेख तक नहीं किया, प्रत्युत पार्श्वनाथ के तपःकर्म (तपश्चर्या) को निरुपसर्ग ही बतलाया है। यदि नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक होते, तो ऐसा स्पष्ट विरुद्ध कथन उनकी लेखनी से कदापि प्रसूत न होता। इन सब विरुद्ध कथनों की मौजूदगी में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि समन्तभद्र और भद्रबाहु एक नहीं हैं, दो व्यक्ति हैं और वे क्रमशः दिगम्बर और श्वेताम्बर दो विभिन्न परम्पराओं में हुए हैं। मैं समझता हूँ कि नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र को पृथक्-पृथक् व्यक्ति सिद्ध करने के लिये उपर्युक्त थोड़े से प्रमाण पर्याप्त हैं। जरूरत होने पर और भी प्रस्तुत किये जा सकेंगे। २.१०.३. कालभेद समन्तभद्र और भद्रबाहु को पृथक् सिद्ध करने के बाद अब मैं इनके भिन्न समय-वर्तित्व के सम्बन्ध में भी कुछ कह देना चाहता हूँ। समन्तभद्र, दिग्नाग (३४५-४२५ ई०) और पूज्यपाद (४५० ई०) के पूर्ववर्ती हैं,३२९ यह निर्विवाद है। बौद्धतार्किक नागार्जुन (१८१ ई०)३३० के साहित्य के साथ समन्तभद्र के साहित्य का अन्तःपरीक्षण३३१ करने पर यह मालूम होता है कि समन्तभद्र पर नागार्जुन का ताजा प्रभाव है, इसलिए वे नागर्जुन के समकालीन या कुछ ही समय बाद के विद्वान् हैं। अतः समन्तभद्र के समय की उत्तरावधि तो दिग्नाग का समय है और पूर्वावधि नागार्जुन का समय है। अर्थात् समन्तभद्र का समय दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसी कि जैनसमाज की आम मान्यता है।३३२और प्रोफेसर साहब भी इसे स्वीकार करते हैं। अतः समन्तभद्र के समय-सम्बन्ध में इस समय और अधिक विचार करने की जरूरत नहीं है। अब नियुक्तिकार भद्रबाह के समय-सम्बन्ध में विचार कर लेना चाहिए। स्व० श्वेताम्बर मुनि विद्वान् श्री चतुरविजय जी ने 'श्री भद्रबाहु स्वामी' शीर्षकवाले अपने एक महत्त्वपूर्ण एवं खोजपूर्ण लेख में ३३३ अनेक प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया है ३२९. देखिए , 'समन्तभद्र और दिग्नाग में पूर्ववर्ती कौन?'/ 'अनेकान्त'/ वर्ष ५ / किरण १२ । ३३०. देखिए , तत्त्वसंग्रह की भूमिका LXVII, वादन्याय में २५० ई० दिया है। ३३१. अप्रकाशित 'नागार्जुन और समन्तभद्र' शीर्षक मेरा (प्रस्तुत लेख के लेखक का) लेख। ३३२. देखिए , 'स्वामी समन्तभद्र'। ३३३. "मूल लेख गुजराती भाषा में है और वह 'आत्मानन्द जन्म शताब्दी ग्रन्थ' में प्रकट हुआ था तथा हिन्दी-अनुवादित होकर 'अनेकान्त'/ वर्ष ३/किरण १२ में प्रकाशित हुआ है।" लेखक। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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