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________________ अ०१० / प्र०६ आचार्य कुन्दकुन्द का समय / ४८३ १४ बहिरात्मादिभेद पूज्यपाद ( ७ वीं शती ई.) से गृहीत प्रो० ढाकी का छठवाँ अन्तरंग हेतु - कुन्दकुन्द ने आत्मा के जो बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा, ये तीन भेद वर्णित किये हैं, उनका जैनग्रन्थों में उल्लेख नहीं है। उन्हें पूज्यपाद देवनन्दी (६३५ - ६८० ई०) ने उपनिषदों से ग्रहण किया है और देवनन्दी से कुन्दकुन्द ने। Asp of Jaino, Vol. III, p. 199 ) । ( निरसन श्रुतकेवली के उपदेश से गृहीत यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है कि पूज्यपाद देवनन्दी ईसा की पाँचवीं शती में हुए हैं और कुन्दकुन्द से परवर्ती हैं। अतः कुन्दकुन्द द्वारा देवनन्दी से कुछ भी ग्रहण किये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। तथा प्रो० ढाकी ने इसका कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया कि पूज्यपाद ने उक्त भेद उपनिषदों से ग्रहण किये हैं, कुन्दकुन्द से नहीं, जब कि कुन्दकुन्द का अस्तित्व ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में सिद्ध किया जा चुका है । और उन्होंने इसका भी कोई प्रमाण नहीं दिया कि आत्मा के उक्त भेदत्रय का ज्ञान कुन्दकुन्द को अपनी गुरुपरम्परा से प्राप्त नहीं हुआ था, जब कि कुन्दकुन्द ने स्वयं को श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्परा शिष्य कहा है पुनः ढाकी जी ने पूज्यपाद स्वामी का काल ६३५ - ६८० ई० माना है, किन्तु छठी शताब्दी ई० के जोइन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश एवं योगसार में आत्मा के उक्त तीन भेदों का वर्णन किया है। यथा— Jain Education International ति-पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु । पर जायहि अंतर-सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ॥ ६॥ योगसार । २१६ अतः ढाकी जी की यह मान्यता मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि कुन्दकुन्द ने बहिरात्मादि-भेद पूज्यपाद से लिए हैं। यह भी नहीं माना जा सकता कि उक्त तीन भेद उपनिषदों से जोइन्दुदेव ने, जोइन्दुदेव से पूज्यपाद ने और पूज्यपाद से कुन्दकुन्द ने लिए हैं, क्योंकि जोइन्दु ने पूज्यपादकृत समाधितंत्र के अनेक श्लोकों को अपभ्रंशदोहों में रूपान्तरित करके परमात्म- प्रकाश २१७ में निबद्ध किया है, अतः पूज्यपाद जोइन्दु से पूर्ववर्ती हैं। और कुन्दकुन्द भी जोइन्दु से प्राचीन हैं, क्योंकि कुन्दकुन्दकृत मोक्षपाहुड २१६. परमात्मप्रकाश / दोहा १ / ११ - १५ भी देखिए । २१७. परमात्मप्रकाश / दोहा १ / ८०, १२३, २/१७५, १७८-१८० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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