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________________ ४६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र.६ शती ई० के परमात्मप्रकाश में भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ आत्मसात् की गई हैं। प्रथम-द्वितीय शती ई० के तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'तत्त्वार्थ' के अनेक सूत्रों की रचना कुन्दकुन्द-साहित्य के आधार पर की है। इससे भी कुन्दकुन्द का आठवीं सदी ई० में उत्पन्न होना बाधित होता है। ये अनेक प्रमाण सिद्ध करते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द कम्भराज, कुमारनन्दिभट्टारक, एलवाचार्यगुरु और वर्धमानगुरु के समय (८०८ ई०) से सैकड़ों वर्ष पहले उत्पन्न हुए थे। लिङ्गप्राभृतोक्त शिथिलाचार छठी शती ई. से परवर्ती अन्तरंग प्रमाणों के आधार पर कुन्दकुन्द को ईसा की आठवीं शताब्दी का सिद्ध करने के लिए पहला हेतु बतलाते हुए प्रो० ढाकी कहते हैं कि कुन्दकुन्द ने लिंगपाहुड में मुनियों के शिथिलाचार पर तीव्र प्रहार किया है। उन शिथिलाचारों में कृषि-वाणिज्य आदि करने का उल्लेख है। ये शिथिलाचार छठी शताब्दी ई० के बाद की घटनाएँ हैं। अतः कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उनका उल्लेख होने से वे छठी शताब्दी ई० के बाद के विद्वान् प्रतीत होते हैं। (Asp. of Jaino., Vol.III, p.195)। निरसन उक्त शिथिलाचार अनादि से भावपाहुड, भगवती-आराधना और मूलाचार जैसे प्राचीन ग्रन्थों में पासत्थ, कुसील आदि पाँच प्रकार के शिथिलाचारी जैन साधुओं का वर्णन किया गया है। इनमें एक ही स्थान में नियतवास करने वाले साधु को पासत्थ (पार्श्वस्थ) संज्ञा दी गई है। जो साधु एक ही स्थान में नियतवास करेगा, उसका जीविकोपार्जन हेतु कृषि-वाणिज्य, मंत्र-तंत्र, औषधप्रयोग आदि लौकिक कर्मों में प्रवृत्त हो जाना स्वाभाविक है। इन क्रियाओं को करनेवाला मुनि कुसील (कुशील) कहा गया है, अर्थात् पासत्थ मुनि कुसील भी हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि इन पासत्थादि पाँच प्रकार के भ्रष्ट मुनियों का अस्तित्व अनादि से है।१९३ इतिहास भी साक्षी है कि अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् (४६५ ई० पू०) भगवान् महावीर के अनुयायी निर्ग्रन्थसंघ के मुनियों का एक वर्ग शीतादि परीषहों से बचने के लिए अर्थात् शारीरिक १९३. देखिये, अष्टम अध्याय के चतुर्थ प्रकरण का शीर्षक क्र.३ पासत्थादि मुनियों के वस्त्रधारण से १२वीं शती ई. में भट्टारक-परम्परा का उदय'। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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