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________________ ८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/ प्र०४ भट्टारकपीठों की सीमाएँ भी विभाजित होती थीं। एक भट्टारकपीठ की सीमा में दूसरे भट्टारकपीठ की जजमानी नहीं चलती थी। भिन्न-भिन्न संघों के भट्टारक पीठों में परस्पर ईर्ष्या-द्वेष भी चलते थे। जिस नगर में एक से अधिक संघों की भट्टारकगद्दियाँ होती थीं, वहाँ तो निरन्तर कलह मची रहती थी और उनके अनुयायी श्रावकों में मार-पीट तक हो जाती थी। ४.६. 'जैनाचार्य-परम्परा-महिमा' ग्रन्थ से समर्थन भट्टारकों के इस राजोजित वैभव-प्रभुत्वमय, वस्त्राभूषणयुक्त, परिग्रही, धर्मशासकस्वरूप का समर्थन 'जैनाचार्य-परम्परा-महिमा' नामक अप्रकाशित ३४९ श्लोकात्मक ग्रन्थ में वर्णित भट्टारकोत्पत्तिकथा से होता है, जो श्रवणबेलगोल के ३१ वें भट्टारक श्री चारुकीर्ति द्वारा रचा गया है और 'आचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार शोध प्रतिष्ठान, लालभवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-३' में उपलब्ध है। श्वेताम्बराचार्य श्री हस्तीमल जी ने इसका विवरण 'जैनधर्म का मौलिक इतिहास' (भाग ३) में पृष्ठ १५२ से १७७ तक दिया है। कुछ अंशों को छोड़कर उसे यहाँ उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत किया जा रहा है "विकट परिस्थितियों में भट्टारक परम्परा का प्रादुर्भाव-आचार्य माघनन्दी के समय में, कोल्लापुर के राजसिंहासन पर वीरशिरोमणि, राजाधिराज, महाराजा गण्डादित्य आसीन था। उसकी सुविशाल चतुरंगिरणी सेना का सेनापति निम्बदेव नामक सामन्त था। सेनापति निम्बदेव उच्च कोटि का रणनीति-विशारद यशस्वी योद्धा था। "एक दिन महाराजा गण्डादित्य अपने वशवर्ती राजाओं, सामन्तों एवं प्रधानों के साथ राजसभा में बैठा हुआ था। धर्मचर्चा के प्रसंग में चकवर्ती भरत के वैभव, उनके द्वारा निर्मित करवाये गये चैत्यालयों, प्रतिष्ठाविधि आदि के विवरण सुनकर राजा गण्डादित्य अतीव प्रमुदित हुआ। अवसर के ज्ञाता सेनापति निम्बदेव ने अपने स्वामी को परम प्रसन्न मुद्रा में देखकर उनसे निवेदन किया-"राजराजेश्वर! बड़ेबड़े राजा-महाराजा आपके चरणों में मस्तक झुकाते हैं। आपका ऐश्वर्य एवं वैभव अनुपम है। इस कलिकाल में आप ही चक्रवर्ती हैं। अतः आप भी भरत चक्रवर्ती के समान चैत्यादि का निर्माण, प्रतिष्ठा आदि धर्म कार्यों से जैनधर्म की अभिवृद्धि कीजिये।" "अपने सेनापति का सुझाव गण्डादित्य को अत्यन्त रुचिकर लगा । उसने अपने पुरोहित एवं प्रधानों को तत्काल आदेश दिया कि चैत्यालयों का निर्माण करवाया जाय। ९९. पं० नाथूराम प्रेमी / जैनहितैषी / भाग ७ / अंक ९ / पृष्ठ २४ / आषाढ़, वीर नि० सं०२४३७ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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