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________________ आम काव्यने अंते जैन परंपरा अनुसार संयमश्रीने पामवाथी अने तेजमां तेज भळी जवानी वात छे. काव्यनी प्रशस्तिमा 'बारमास'मां 'जिन गुण' अंगे 'प्रमाद' न सेववानु ते जणावे छे. बारमास जिन-गुण तणा हो, गातां न कर प्रमाद, लाभ अनंतु आगमि हो सुणतां हुइ आल्हाद. १२७ चुटक सुणतां हुइ आल्हाद सदाइ, जिन-गुण अतिहिं रसाल, मन-नइ रंगि तेह ज सुणतां, नितु नितु मंगल-माल. १२९ श्री विनयमांडन गुरु राज अनोपम, तपगछ–गयणइ चंद, तास सीस जयवंतसूरि, वर वाणी सुणता हुइ आणंद. १२९ साचे ज काव्यना पठनथी आपणने पण आनंद थाम छे. ३. स्थूलिभद्र-कोशा प्रेमविलास फागर आ संक्षिप्त छतां रसपूर्ण कृतिमां वसंतऋतुनुं वैभवी वर्णन प्राप्त थाय छे. काव्य ‘मधुमास'मां गवातो फाग छ, आरंभनी सर्व कडीमा सामान्य वसंत वर्णन मळे छे, जेथी ते सांसारिक प्रेमकाव्य होय अवु लागे छे मात्र छेल्ली छ-आठ पंक्तिमा ज कविए स्थूलिभद्र अने' कोशानी कथाना स्पर्श करी, तेमां जैन फागु काव्यनी परंपरा जाळववानो प्रयास को छे. काव्यना प्रारभमां कवि सरस्वतीनुं स्मरण करे छे. सरसति सामिनि मनि धरी. समरी प्रेमविलास, थूलिभद्र कोश्या गायसिउ, जिम मनि पुहचा आस.३ ऋतु वसंतनुं आगमन थाय छे. सर्वत्र तेनी असर पडे छे; तेनु ताद्दश वर्णन कवि करे छे. वनसपती सवि मोहरी रे, पसरी मयणनी आण, विरहीनई कहंउ कहंउ करइ, कोबलि मूकइ बाण. तरुअरुवेलि आलिंगन देखिय सील सलाय, भरयोवन प्रिय वेगलु, खिण न विसारिओ जाइ.४ विरहिणी पियने विरह उपस्थित करवा अंगे उपालंभ आपतां जणावे छे. १. ने. रा. बा. वे. प्र. पृ. ५ १२९. २. प्राचीन फागु संग्रह, संपा. डो. भोगीलाल ज. सांडेसस अने श्री. सोमाभाई पारेख, वडोदरा, १९५५, पृ. १२६-१३३. ३. प्राचीन फागु संग्रह, पृ. १२५,१. ५. अजन. पृ. १२६, ४-५. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004029
Book TitleShrungarmanjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanubhai V Sheth
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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