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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । प्रहारवाले) जब आपसमें लडते हैं, और एक दूसरेको मारते हैं, तब जैसे रागद्वेषसे पूर्ण तथा अकुशलपुण्यके बन्धन करनेवाले मनुष्योंको बड़ी भारी प्रीति होती है, ऐसे ही इस प्रकार कार्य करानेवाले उन असुरोंको भी जब नारक जीव परस्पर लड़ते हैं, तब उन्हें वैसा देखकर अतिशय प्रीति उत्पन्न होती है। और वे दुष्ट कामनायुक्त असुर इस प्रकार दुर्दशाग्रस्त नरकके जीवोंको देखकर अट्टहास ( महाहास्य) करते हैं, प्रसन्नताके मारे वस्त्र फेंकते हैं, तालियां बजाते हैं, और बड़े जोरसे सिंहवत् चिंग्घार मारते हैं । और उनका यह कार्य,—यद्यपि देवयोनिमें उत्पन्न होनेसे उनमें देवत्व है, तथा कामियोंके प्रीतिहेतुभूत अन्यकारण भी विद्यमान हैं, तथापि माया, निदान, और मिथ्यादर्शन इन शल्यों, तीव्रकषायोंके उदय, भावदोषकी आलोचनासे शून्य, विचार सहनशीलतासे रहित, अकुशलतासे सम्बन्ध रखनेवाले पुण्यकर्म, तथा भावदोष सहित बालतपस्याका फल है जो, अन्य अनेक प्रीतिके कारण होने पर भी उनके अशुभ ही प्रीतिके कारण उत्पन्न होते हैं । __इत्येवमप्रीतिकरं निरन्तरं सुतीनं दुःखमनुभवतां मरणमेव कासतां तेषां न विपत्तिरकाले विद्यते कर्मभिर्धारितायुषाम् । उक्तं हि । औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खयेयवर्षायुषोऽनपवायुष इति । नैव तत्र शरणं विद्यते नाप्यपक्रमणम् । ततः कर्मवशादेव दग्धपाटितभिन्नच्छिन्नक्षतानि च तेषां सद्य एव संरोहन्ति शरीराणि दण्डराजिरिवाम्भसीति । इसप्रकार अप्रीतिकारक परस्परसे तथा असुरोंके द्वारा उत्पन्न निरन्तर अति तीव्र दुःखोंको अनुभवन करते हुए और उस दुःखसे सदा मरणको ही चाहनेवाले नरकके जीवोंकी अकालमें मृत्यु भी नहीं होती । क्योंकि कर्मोकेद्वारा उनका आयुष् नियत है । और ऐसा कहा भी है-"औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्खयेयवर्षायुपोऽनपवायुषः" अर्थात् “उपपातरूप जन्मवाले, चरम शरीरी, उत्तमपुरुष और असङ्ख्येय वर्ष आयुष्वालोंके आयुष्का अपवर्तन नहीं हो सकता।" न तो नरकके जीवोंको इन दुःखोंसे कोई शरण ही है और न वहांसे कहीं भागके जा सकते हैं। इस हेतुसे कर्मके वशसे ही उनके शरीर दग्ध होनेपर, फाडे जानेपर, छिन्न भिन्न और अत्यन्त क्षत (अनेक घावोंसे युक्त) होने पर भी पुनः ज्योंके त्यों ऐसे हो जाते हैं, जैसे जलमें दंडोंकी रेखा। एवमेतानि त्रिविधानि दुःखानि नरकेषु नारकाणां भवन्तीति ॥ इसप्रकार त्रिविध दुःख होते हैं अर्थात् अशुभतर लेश्या परिणामादिसे उत्पन्न, पर. स्पर कारणसे उत्पन्न, और असुरोंकेद्वारा उत्पन्न, ये तीन प्रकारके दुःख होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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