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________________ सारसमुच्चय ज्ञानभावनया जीवो लभते हितमात्मनः । विनयाचारसम्पन्नो विषयेषु पराङ्मुखः ॥४॥ अन्वयार्थ (विनयाचारसम्पन्नो) धर्म-विनय व धर्मके आचरणमें लगा हुआ तथा (विषयेषु पराङ्मुखः) पाँच इन्द्रियोंके विषयोंसे उदासीन (जीवः) जीव (ज्ञानभावनया) सम्यग्ज्ञानकी भावना करनेसे (आत्मनः हितं) आत्माका हित (लभते) प्राप्त करता है। ___भावार्थ-आत्माका हित सुख-शान्तिका लाभ व कर्म-मलका दूर करना है। इस कार्यको वही ज्ञानी कर सकता है जो देव, शास्त्र, गुरु व धर्ममें आदरसहित भक्ति रखता है व शक्तिके अनुसार धर्मका आचरण पालता है, मुनि व श्रावकके व्रतोंकी साधना करता है तथा जिसके मनमें यह वैराग्य आ गया है कि इन्द्रियसुख सच्चा सुख नहीं है, यह विषतुल्य जीवको अहितकारी है। ऐसा ही ज्ञानी निरंतर इस बातकी भावना भाता है कि मैं निश्चयसे सिद्ध भगवानके समान शुद्ध ज्ञाता-दृष्टा आनन्दमय वीतराग आत्मा हूँ, कर्मका संयोग और शरीरादि सब मुझसे भिन्न हैं । इसी उपायसे सच्चा सुख अनुभवमें आता है व कर्ममल कटता है। ___आत्मानं भावयेन्नित्यं ज्ञानेन विनयेन च । मा पुनर्मियमाणस्य पश्चात्तापो भविष्यति ॥५॥ अन्वयार्थ-(ज्ञानेन) सम्यग्ज्ञान सहित (च विनयेन) और आदर सहित (नित्यं) सदा (आत्मानं) अपने आत्माकी (भावयेत) भावना करनी चाहिए (मा पुनः) नहीं तो (म्रियमाणस्य पश्चात्) मरनेके बाद (तापः) संताप (भविष्यति) होगा। भावार्थ-बुद्धिमान मनुष्यका कर्तव्य है कि निरंतर बड़े प्रेमसे भेदविज्ञान सहित अपने शुद्ध आत्माका बारबार मनन करे। श्री जिनेन्द्रकी भक्ति द्वारा, शास्त्र-स्वाध्याय द्वारा, गुरुसे उपदेशग्रहण द्वारा, सामायिक व ध्यान द्वारा शुद्ध स्वरूपका मनन व अनुभव करे, यही आत्माके हितका कार्य है । जो प्रमादी शरीर, कुटुम्ब, धनादिमें मोही होकर इस कार्यको न करेगा वह आत्माको निरंतर पापबंधसे मलीन करता हुआ अन्तमें मरकर नरक व पशुगतिमें चला जायेगा और महान कष्ट भोगेगा। तथा च सत्तपः कार्यं ज्ञानसद्भावभावितं । यथा विमलतां याति चेतो-रत्नं 'सुदुर्धरं ॥६॥ अन्वयार्थ-(यथा) जिस प्रकारसे (सुदुर्धरं) यह कठिनतासे प्राप्त होने योग्य पाठान्तर-१. सुदुर्लभं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004017
Book TitleSara Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulbhadracharya, Shitalprasad
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2000
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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