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________________ -.09 1 [ प्राक्कथन ]. 00000000 800 वृहद्रव्यसंग्रह यद्यपि ५८ गाथा का छोटा सा ग्रन्थ है, परन्तु विषयविवेचन की दृष्टि से बहुत उपयोगी और महत्वशाली है । इसमें ग्रंथकार ने जैन सिद्धान्त एवं अध्यात्म का बहुत कुछ सार भर दिया है । 'जीव' का नौ अधिकारों में व्यवहार एवं निश्चय नय द्वारा जिस प्रकार कथन इस ग्रन्थ में किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता । इस ग्रन्थ में तीन अधिकार हैं । प्रथम अधिकार में छह द्रव्य व पंचास्तिकाय का, दूसरे में सात तत्त्व व नव पदार्थ का और तीसरे में निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग का प्रतिपादन अत्युत्तम शैली से किया गया है । सैद्धान्तिक ज्ञान के लिये तत्त्वार्थसूत्र की भांति द्रव्यसंग्रह भी अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है और श्री समयसार आदि अध्यात्म-प्रन्थों के लिये प्रवेशिका है । oo प्र द्रव्यसंग्रह के रचयिता श्री नेमचन्द्र सिद्धान्तदेव एक महान् आचार्य और सिद्धान्त व अध्यात्म ग्रंथों के पूर्ण पारगामी थे, इसी कारण 'सिद्धान्तदेव ' उनकी उपाधि थी । उनके निश्चित् समय का उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु संस्कृतटीकाकार श्री ब्रह्मदेव के कथनानुसार, श्री नेमचन्द्र आचार्य राजा भोज के समकालीन ११ वीं शताब्दी के महान् विद्वान् व कवि प्रतीत होते हैं । वृहद्रव्यसंग्रह की केवल प्रस्तुत संस्कृत टीका ही उपलब्ध है । श्री ब्रह्मदेव ने यह टीका बहुत सुन्दर, विस्तारपूर्वक एवं सप्रमाण लिखी है । टीका में ग्रन्थों के उद्धरण तथा नामोल्लेख से सिद्ध होता है कि आप बहुश्रुती विद्वान् थे । आपने श्री धवल, जयधवल, महावल आदि सिद्धान्त-ग्रंथों का तथा श्री समयसार आदि अध्यात्म ग्रंथों का गहन अध्ययन और मनन किया था अर्थात् आप सिद्धांत एवं अध्यात्म के पारगामी थे। आपको नय-ग्रन्थों का भी उच्चकोटि का ज्ञान था । आपने व्याख्या प्रौढ़ सुबोध एवं ललित संस्कृत में लिखी है। इस टीका के अतिरिक्त आपने परमात्म प्रकाश की टीका, तत्त्वदीपक, ज्ञानदीपक, त्रिवर्णाचार दीपक, प्रतिष्ठातिलक, विवाहपटल, कथाकोष आदि की भी रचना की है । आपका निश्चित् समय बताने योग्य साधन उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु ऐसा अनुमानित किया गया है कि आप १२ वीं - १३ वीं शताब्दी के विद्वान् थे । श्री ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका तथा स्वर्गीय श्री पं० जवाहरलाल कृत हिन्दी अनुवाद सहित यह ग्रन्थ दो बार रायचन्द्र प्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है। तत्पश्चात् उक्त संस्कृतटीका तथा श्री पं० अजितकुमार शास्त्री - कृत हिन्दी अनुवाद सहित देहली से प्रकाशित हुआ है; किन्तु अब उपलब्ध नहीं है और स्वाध्याय- प्रेमियों की माँग है, अतः प्रस्तुत संस्करण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004016
Book TitleBruhad Dravya Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramhadev
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1958
Total Pages284
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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