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________________ ( १८ ) अज्ञानता १८१, (४) स्वस्त्री में अत्यासक्ति १८२, (५) स्वस्त्री के व्यभिचारिणी हो जाने पर १८२, (६) आर्थिक विवशता १८३, (७) अश्लील साहित्य का प्रचार १८३, (८) गन्दे नाटक-सिनेमा का वातावरण १८३, (६) एकान्तवास १८४, (१०) सहशिक्षण, सहभ्रमण आदि १८५, (११) धार्मिक अन्धविश्वास १८६, अनेक देशों की प्रथाओं के दृष्टान्त १८६, (१२) मादक वस्तुओं का सेवन १८७, (१३) बालविवाह, वृद्धविवाह, अनमेल विवाह १८७, (१४) अत्यधिक धन, सुख-सुविधा और निरंकुशता १८८, परस्त्री में आसक्ति : सर्वनाश का कारण १८६, सर्वनाश का अर्थ १८६, कामान्धों की दुर्दशा का चित्रण १६०, परस्त्रीसेवन से सर्वनाश के विभिन्न पहलू १६०, शरीर का नाश १९१, सामाजिक दृष्टि से सर्वनाश १९२, परस्त्री से संसर्ग करने वालों का बुरी तरह से सफाया १६४, कामांध रानी का दृष्टान्त १९४, पारिवारिक जीवन का विनाश १९८ । ६२. दरिद्र के लिए दान दुष्कर २००-२१३ __ वास्तविक दरिद्र कौन ? किन वस्तुओं के अभाव में ? २००, साधनों का अभाव : दान देने में बाधक नहीं २०१, दिया हुआ निष्काम दान कई गुना अधिक मिलता है २०३, दरिद्र के लिए दान : कितना सुकर, कितना दुष्कर ? २०६, गरीब का दान महत्त्वपूर्ण क्यों ? २०७, सर्वस्वदान : दुष्करतम और महत्तम २१०, सामूहिक रूप से कैदियों द्वारा प्रदत्त दुष्कर दान २१२। ६३. समर्थ के लिए क्षान्ति दुष्कर २१४--२२६ प्रभु कौन और कैसे ? २१४, प्रभु शब्द के लौकिक दृष्टि से विभिन्न अर्थ २१४, शक्ति के साथ नम्रता एवं सहिष्णुता कठिन २१५, धन की शक्ति का मद २१५, सत्ता की शक्ति का मद २१५, उच्चत्व शक्ति का मद २१७, पुरुषत्व शक्ति का मद २१७, पद की शक्ति का मद २१८, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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