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________________ शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २७७ गुरु के ज्ञान का प्रकाश कौन और कैसे पा सकता है ? परन्तु यह बात निश्चित है कि गुरु के ज्ञान का प्रकाश वही पा सकता है, जिस शिष्य में गुरु के प्रति श्रद्धा, भक्ति, सेवा-शुश्रूषा, विनय और समर्पण भावना होगी। शिष्य में गुरु का ज्ञान ग्रहण करने हेतु कौन-कौन-से गुण होने आवश्यक हैं ? इसके लिए उत्तराध्ययन सूत्र (अ० १) की टीका में बताया है सुस्सूसा पडिपुच्छा सुणणं गहणं च ईहणमवाओ। धरणं करणं सम्मं, एआई होति सोसगुणा ॥ सुशिष्य के ये गुण होते हैं(१) शुश्रूषा (गुरु के वचन सुनने की तीव्र उत्कण्ठा), (२) प्रतिपच्छा (न समझ में आए उसके सम्बन्ध में विनयपूर्वक पूछना), (३) श्रवण (रुचि एवं श्रद्धापूर्वक सुनना), (४) ग्रहण (सुनकर ठीक से ग्रहण करना), (५) ईहन (अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये हुए अत्यन्त अस्पष्ट ग्रहण को स्पष्ट करने हेतु उपयोग विशेष), (६) अपाय (हेय को छोड़ना, उपादेय को ग्रहण करना), (७) धरण (सम्यक् धारणा-निश्चित अर्थ का ग्रहण करना, जिससे स्मृति बनी रहे), (८) सम्यक्करण (इन्द्रियों और मन आदि करणों का सम्यक् उपयोग करना अथवा गुरु के वचनों को सम्यक् रूप में क्रियान्वित करना)। जिस शिष्य की गुरु के प्रति समर्पण वृत्ति होती है, उसे गुरु चाहे विधिपूर्वक शास्त्रीय वाचना दें या न दें, उसके मस्तिष्क में गुरु के मन में स्थित अर्थ किमी न किसी तरह उतर जाता है। जो शिष्य गुरु की सेवा-भक्ति श्रद्धापूर्वक करता है, अनपढ़ होने पर भी गुरुप्रदत्त स्पर्शदीक्षा से उसे सब शास्त्रों या धर्मग्रन्थों के अर्थ की स्फुरणा हो जाती है। ___ रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य थे, जो पढ़े-लिखे नहीं थे । परन्तु उनमें गुरु की सेवाभक्ति करने की अद्भुत लगन थी। गुरु की आज्ञा होते ही वे हर एक काम के लिए तैयार रहते थे। यहां तक कि गुरु-आज्ञा होने पर शीघ्र ही किसी प्रकार के तर्क-वितर्क किये बिना उसे अमल में लाते थे। उनके कहने से पहले ही वे उनकी आवश्यकतानुसार सब चीजें प्रस्तुत कर देते थे, काली-पूजा आदि का सब सामान समय पर उपस्थित कर देते थे। कहते हैं, उनके गुरु रामकृष्ण की उपस्थिति में सोधे-सादे अविद्वान-से लगने वाले वह शिष्य गुरु के स्वर्गवास के बाद उपनिषदों और गीता आदि ग्रन्थों की सुन्दर व्याख्या भी करने लगे। उन पर सुन्दर व्याख्यान भी देने लगे । यह रामकृष्ण परमहंस की कृपा थी कि वे उन्हें स्पर्शदीक्षा दे गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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