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________________ अश्रद्धा परमं पापं, श्रद्धा पाप-प्रमोचिनी ६७ स्वयं भली-भाँति नहीं कर सकते तो बहाना बना लेते हैं-"महाराज ! हमारी बुद्धि काम नहीं करती और इनके विषय में हम समझ न पाने के कारण कुछ जान नहीं सकते।" ___ अरे भाई ! अगर तुम्हारी बुद्धि काम नहीं करती और तुम्हारे ज्ञान के नेत्र तत्त्वों की गंभीरता को नहीं देख पाते तो क्या तुम औरों के ज्ञान का लाभ नहीं उठा सकते ? क्या तुम परमार्थ के ज्ञाताओं के निर्देशन पर नहीं चल सकते ? 'सूत्रकृतांग' में कहा गया है 'अदक्षु, व दक्खुवाहियं सदहसु ।' __ अर्थात् - अरे, नहीं देखने वालो ! तुम देखने वालों की बात पर विश्वास करते चलो। कितनी सुन्दर और सरल प्रेरणा दी गई तथा कहा गया है कि अगर तुम्हें स्वयं मार्ग नहीं सूझता तो सन्मार्ग के ज्ञाता महापुरुषों एवं गुरुओं के सुझाये हुए मार्ग पर तो चल सकते हो ? वही करो । पर उसके लिए भी एक शर्त है और वह है पूर्ण विनय-भाव रखना। कोई भी जिज्ञासु तभी गुरु से कुछ ग्रहण कर सकता है, जबकि अपनी उच्छखलता एवं हठ का त्याग करके उन पर पूर्ण विश्वास करता हुआ सन्मार्ग की जानकारी करे । विनय भी श्रद्धा का प्रतीक है अतः प्रसंगवश मैं विनय-भाव पर शास्त्रीय उल्लेख देता हूँ । शास्त्रों में कहा गया है "चउम्विहा खलु विणयसमाही पण्णत्ता, 'तं जहा--(१) अणुसासिज्जंतो सुस्सूसइ, (२) सम्म संपडिवज्जइ, (३) वेयमाराहइ, (४) न य भवइ अत्तसंपग्गहिए।" ___ अर्थात्-विनय समाधि चार प्रकार की है । यथा-(१) गुरु द्वारा शासित होकर, गुरु के सुभाषित वचनों को सुनने की इच्छा करे । (२) गुरु के वचनों को सम्यक् प्रकार से समझे-बूझे। (३) श्रुतज्ञान की पूर्णतया आराधना करे । (४) गर्व से आत्म-प्रशंसा न करे । इस प्रकार जो मुमुक्षु स्वयं तीव्र बुद्धि और ज्ञान न रखता हुआ गुरु की संगति एवं उनके उपदेशों से भी परमार्थ की जानकारी करता है । वह निश्चय ही जन्म-मरण की बीमारी को मिटाने वाली दूसरी औषधि का सेवन करता है तथा उससे लाभ उठा लेता है । www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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