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________________ ६० . आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग धर्माचरण का फल मिलता था तथा सिद्धियाँ उनके चरणों पर स्वयं झुकती थीं। आज भी उनका विलीनीकरण नहीं हो गया है और बिरले महा-मानवों में उनका कुछ न कुछ अस्तित्व पाया जाता है। इससे यह तो निश्चय ही है कि पूर्व में साधक महान् सिद्धियों के अधिकारी होते थे । अन्तर केवल यही है कि वे साधक केवल कर्मों से मुक्त होना ही अपना उद्देश्य समझते थे, सिद्धियाँ हासिल करना नहीं । सिद्धियाँ तो उन्हें स्वयं ही हासिल हो जाती थीं। किन्तु आज का साधक थोड़ा धर्माचरण करके ही सिद्धियों के स्वप्न देखता है और वे प्राप्त न होने पर अविलम्ब अपने उस किये-कराये पर भी पानी फेरकर पश्चात्ताप करने लग जाता है कि मैंने व्यर्थ में इतने दिन तपानुष्ठान किये, इससे तो सांसारिक सुखोपभोग करना अच्छा था । जो साधक सिद्धियों को ही अपना उद्देश्य मान लेता है, वह भला कब तक अपने साधना मार्ग पर दृढ़ता से चलेगा और परिषहों पर विजय प्राप्त करके संवर की आराधना कर सकेगा ? जबकि उसके मानस में स्थिरता नहीं होती और सन्देह की तरंगें सदो उसके मस्तिष्क को झकझोरती रहती है। ईसाई धर्म-ग्रन्थ इजील में लिखा हैA doubt minded man is unstable all his ways. -Games 1, 8. अर्थात्-एक. श्रद्धाविहीन या सन्देहशील व्यक्ति अपने सभी कृत्यों में चलायमान रहता है । उसके दिल और दिमाग में स्थिरता नहीं होती। वस्तुतः आज के युग में सच्ची श्रद्धा का अधिकांश में अभाव है । साधारण व्यक्तियों का तो कहना ही क्या है, वे तो चार पैसों के लिए भी अपना धर्म बेचने के लिए तैयार रहते हैं और रोगादि का थोड़ा सा आक्रमण होते ही भैरों, भवानी और हनुमान के आगे मस्तक झुकाने लगते हैं । पर बड़े-बड़े श्रावक और महाव्रतधारी साधु भी मन, वचन और कर्म से अपनी साधना पर दृढ़ नहीं रह पाते । कभी-कभी तो वे अपना वेश भी श्रद्धा के अभाव में त्याग कर संसार में लिप्त हो जाते हैं, कभी लोक-लज्जा के कारण वेश नहीं त्याग पाते तो वचन से धर्म के प्रति अनास्था व्यक्त करते हुए उसकी निरर्थकता साबित करने लगते हैं और कभी-कभी इन दोनों पर रोक लगा लेते हैं तो मन ही मन अपने व्रतों के ग्रहण कर लेने पर और संयम के अपना लेने पर पछताते हुए घुलते रहते हैं । पर आप, यह न सोचें कि इस युग में सभी व्यक्ति या साधु ऐसे ही होते हैं। 'बहु रत्नानि, वसुन्धरा' इस पृथ्वी पर बिरले महापुरुष और . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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