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________________ ५० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग स्वामी रामदासजी ने भी मराठी भाषा में यही कहा हैजगी सर्व सुखी असा कोण आहे, विचारी मना तूचि शोधूनी पाहे । मना तूचि रे पूर्वसंचित केले, तथा सारखे भोगणे प्राप्त झाले ॥. स्वामीजी का कथन है- "रे मन ! तू विचार करके देख कि इस जगत में पूर्ण सुखी कौन है ? सभी अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुख प्राप्त करते हैं और इसी नियम के अनुसार तुझे भी शुभ और अशुभ फल कर्मानुसार भोगने पड़ेंगे।" बन्धन और मुक्ति कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक साधक को अपने मन, वाणी एवं शरीर को बड़ी सावधानीपूर्वक रखना चाहिए। हमारे शास्त्र कहते हैं कि कर्म-बन्धन का कार्य बड़ा बारीक होता है। मानव समझ नहीं पाता कि कर्म किस प्रकार और कौन-कौनसे मार्ग से आकर आत्मा पर लिपटते चले जाते हैं तथा किस प्रकार उनसे छुटकारा भी होता जाता है। उदाहरणस्वरूप यदि कोई व्यक्ति स्वयं आठ दिन का तप नहीं कर पाता किन्तु ऐसा तप करने वाले का अनुमोदन करता है और उसकी सराहना करता है, तब भी पुण्य कर्मों का उपार्जन कर लेता है और इसके विपरीत अशुभ कार्य स्वयं न करने पर भी दूसरों के अशुभ कार्यों का अनुमोदन करके पाप-कर्म पल्ले में बाँध लेता है। तारीफ की बात तो यह है कि पाप-कर्म मन, वचन एवं शरीर से बँधते हैं और इन्हीं के द्वारा छूटते भी हैं । मान लीजिये, किसी के बारे में हमने अशभ चिंतन किया तो पाप पल्ले में बँध गया । किन्तु अगर मन ने पलटा खाया और यह विचार आया कि--"अरे, मैंने ऐसा क्यों सोचा ? यह मेरी भूल है। जो जैसा करेगा वह वैसा स्वयं ही भोगेगा मैंने ऐसा विचार करके बुरा किया है ।" तो ऐसा विचार करते ही, यानी अपने अशुभ विचारों के लिए सच्चा पश्चात्ताप करते ही वह पाप हमारी आत्मा से अलग हो जाएगा। इसी प्रकार किसी को हमने जुबान से कड़े शब्द कह दिये तो पाप बँध गया पर तुरन्त खयाल आते ही उससे कहा--"भाई ! मुझे भान नहीं रहा, अतः तुम्हारा मन दुखाकर मैंने गलती की है, माफ करो।" यह कहते ही पाप छूट जाएगा। यही हाल शरीर की क्रियाओं का है। भीड़-भाड़ के कारण और कहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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