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________________ धर्माचरण निरर्थक नहीं जाता धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! ___ संवर तत्त्व के सत्तावन भेदों पर हमारा विवेचन चल रहा है और उनमें से उन्नीसवें भेद यानी इक्कीसवें परिषह पर हमने कल विचार किया था। इक्कीसवाँ भेद 'अन्नाण-परिषह' यानी अज्ञान परिषह है। ___ इस परिषह को लेकर कल मैंने 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' के दूसरे अध्याय की बयालीसवीं गाथा आपके सामने रखी थी। उसका सारांश यही था कि साधक अज्ञान के कारण शुभ कार्य करके भी यही सोचता है कि मैंने यह काम निरर्थक किया । ज्ञान के अभाव में जब वह औरों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का समाधान नहीं कर पाता तो यह विचार करने लगता है कि-"जब मैं धर्म के पावन और कल्याणकारी मार्ग को नहीं समझ सका तो मेरा साधुपना ग्रहण करना व्यर्थ है और इससे तो सांसारिक सुखोपभोग करना ही अच्छा था।" इस प्रकार अज्ञानावस्था में वह सही कार्यों को गलत और गलत कार्यों को सही समझने लगता है। किन्तु इसके परिणामस्वरूप वह संवर का मार्ग छोड़कर आश्रव के मार्ग पर बढ़ने लगता है और अपनी आत्मा का अकल्याण कर बैठता है। इसी विषय पर 'उत्तराध्ययन सूत्र' की अगली गाथा कही गई है और वह इस प्रकार है तवोवहाणमादाय, पडिमं पडिवज्जओ, एवं पि विहरओ मे, छउमं न निय?ई ॥ अ० २–गा० ४३ इस गाथा में भी यह बताया गया है कि साधु अज्ञान परिषह के वशीभूत होकर कभी यह चिन्तन न करे कि-"मैंने तप और उपधान तपों का अनुष्ठान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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