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________________ सत्य ते असत्य दिसे ४३ (७) प्रज्ञा - प्रज्ञा को भी धन माना जाता है यह आन्तरिक धन है । बाह्य धन को तो चोर चुरा सकते हैं, जल बहा सकता है, अग्नि भस्म कर सकती है और राजा छीन लेता है, किन्तु प्रज्ञा रूपी धन को किसी प्रकार का भय नहीं होता । प्रज्ञा से सम्पन्न व्यक्ति जीव और जगत् के रहस्यों को भली-भाँति समझ सकता है तथा चिन्तन करता हुआ संसार की अनित्यता को जानकर संयोग एवं वियोग में पूर्ण समभाव रख सकता है । जातस्य ही ध्रुवं मृत्युः " कहा जाता है कि एक स्थान पर कुछ भक्त परमात्मा का भजन करने में तल्लीन थे कि एक व्यक्ति वहाँ आया और रोने लगा । सभी व्यक्ति आगत पुरुष को रोते हुए देखकर चौंक पड़े और एक व्यक्ति ने उससे रोने का कारण पूछा । संयोग की बात थी कि रोने का कारण पूछने वाले व्यक्ति का युवा और इकलौता पुत्र ही किसी दुर्घटना से काल कवलित हो गया था । किन्तु जब उसने अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुना और वहाँ बैठे हुए व्यक्तियों की आँखों में आँसू देखे तो पूर्ण शांति और गम्भीरता पूर्वक गीता का एक श्लोक कहा— जातस्य हि ध्रुवं मृत्युर्घुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहारार्थे, न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ अर्थात् - जिसने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मरा है वह निश्चित पुनः जन्म लेगा । अतः इस अवश्यम्भावी विषय को लेकर आप लोगों को दुःख करना उचित नहीं है । मृतपुत्र के पिता की यह बात सुनकर और उसके असीम धैर्य एवं समभाव को देखकर वहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति दंग रह गये और उससे सच्ची प्रेरणा लेकर आत्म-चिंतन में निमग्न हो गये । अपनी प्रज्ञा का जो भव्य पुरुष इस प्रकार लाभ उठाते हैं, वे स्वयं तो अपनी आत्मा को उन्नत बनाते ही हैं साथ ही अपनी संगति करने वाले अन्य व्यक्तियों को भी सन्मार्ग पर ले आते हैं । आवश्यकता केवल इस बात की है कि प्रज्ञा अथवा बुद्धि का समुचित उपयोग किया जाय। उसे पाकर भी अगर व्यक्ति ने आत्म-चिंतन नहीं किया तथा वीतराग के बताये हुए मार्ग पर चलने का संकल्प न करते हुए मन को अज्ञान के वशीभूत हो जाने दिया तो फिर प्रज्ञा का होना न होना समान हो जाएगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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