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________________ ऐरे, जीव जौहरी ! जवाहिर परखि ले ३८७ किसी को यों ही प्राप्त हो जाता है ? जब तक भगवान के प्रति श्रद्धा न होगी, तब तक कोई भी मनुष्य किसी प्रकार का त्याग नहीं कर सकेगा। इसलिए व्यक्ति को प्रार्थना में सीधी श्रद्धा ही माँगनी चाहिए और कुछ नहीं।" । सातवें विद्वान की रौबीली आवाज को सुनकर तो आठवाँ महापंडित जो अपने आपको न्यायाधीश मानकर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था, क्रोध से भर गया और कह उठा "आप लोगों में से एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो भगवान से सही चीज की माँग कर सके । अरे ! जब तक हृदय में मिथ्यात्व भरा पड़ा है तब तक श्रद्धा क्या मन के अन्दर घुस पाएगी? कभी नहीं, इसलिए अगर भगवान से माँगना है तो मिथ्यात्व के नाश की प्रार्थना करो और कुछ नहीं।" ___ इस प्रकार वे सभी विद्वत्वर्य आपस में वाद-विवाद करने लगे और भगवान से मनुष्य को किस बात के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, इस पर बहस करने लग गये। कहते हैं कि वृक्षों पर यक्ष आदि निवास करते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार उस बरगद पर भी संयोगवश एक यक्ष रहता था जो बड़ी देर से उन सब महापण्डितों का विचार-विमर्श सुन रहा था। किन्तु इतनी देर में भी जब उन लोगों की बातों का कोई निर्णय नहीं निकल पाया तो वह बोला-- ___ "अरे भाइयो ! क्यों इतनी देर से आपस में झगड़ रहे हो ? भगवान से प्रार्थना करके माँगने की आवश्यकता नहीं है । तुम लोग प्रार्थना करो तो सही !! प्रार्थना करने पर तो सब कुछ स्वयं ही मिल जाएगा।" ___ तो बन्धुओ, मैं आपको यह बता रहा था कि आत्म-गुणों की पहचान करने के लिए मनुष्य के पास ज्ञान का भण्डार मौजूद हो, इसकी आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता केवल यही है कि वीतराग के वचनों पर विश्वास करके व्यक्ति सद्गुणों की पहचान करता हुआ उन्हें अपने आचरण में उतारे, अन्यथा अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेना भी आचरण में उतारे बिना व्यर्थ चला जायेगा। इस सम्बन्ध में भी एक सुन्दर उदाहरण मुझे याद आ गया है उसे आपके सामने रख रहा हूँ। __ज्ञान को आचरण में उतारो ! कहा जाता है कि आचार्य बहुश्रुति के आश्रम में एक बार तीन छात्र अध्ययन करते थे। तीनों ने बहुत दिनों तक अपने गुरुजी से विद्याध्ययन किया, पर तीनों छात्रों में से दो जो अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के थे ज्ञान की सम्पूर्ण पुस्तकें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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