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________________ गहना कर्मणो गतिः २७ सरापा पाक हैं, धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से । नहीं हाजत कि वह पानी बहाएँ सर से पावों तक । यानि जो भव्य प्राणी दुनिया से विरक्त हो गये हैं तथा जिनके मन से विषय विकार एवं राग-द्वेषादि का कालुष्य वैराग्य के निर्मल जल से धुल चुका है, उन्हें आपाद-मस्तक अपने शरीर को रगड़-रगड़ कर धोने और साफ करने की आवश्यकता ही क्या है ? वस्तुतः जब साधक के मन में वासनाएँ तथा इच्छाएँ नहीं रहती तब उसके मन से मित्रता-शत्रुता, ईर्ष्या-द्वष एवं आसक्ति आदि सब कुछ दूर हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को फिर दिखावे के लिए धर्म-क्रियाएँ करने की, मक्का मदीना या अन्य तीर्थों में जाने की तथा गंगा-स्नान करके शरीर को शुद्ध करने की जरूरत नहीं होती। मेरे कहने का सार यही है कि प्रत्येक मुमुक्षु को सर्वप्रथम अपने विकारग्रस्त मन को साधना चाहिए तथा भावनाओं को शुद्ध एवं निष्पाप बनाना चाहिए। ऐसा करने पर ही उसके द्वारा की गई प्रत्येक शुभ-क्रिया एवं धर्माचरण अपना सही फल प्रदान करेगा । व्यक्ति पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करेगा और नवीन कर्मों के बन्धनों से बच सकेगा। __ ध्यान में रखना चाहिए कि कर्मों का बन्धन पल-पल में होता रहता है। आप और हम सभी जानते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है और इसमें विचारों का परिवर्तन क्षण-क्षण में होता रहता है । अतः ज्यों-ज्यों मन के विचार या मन की भावनाएँ परिवर्तित होती हैं, त्यों-त्यों उनकी श्रेष्ठता या जघन्यता के अनुसार कर्म बँधते चले जाते हैं। तारीफ तो यह है कि संसार में लिप्त रहने वाले व्यक्ति को पता भी नहीं चलता और ध्यान भी नहीं रहता कि आमोद-प्रमोद एवं सुख-भोग भोगते हुए उसकी आत्मा तो कर्मों से निरंतर बोझिल होती चली जाती है। कर्मों का ध्यान उसे तब आता है, जबकि वे उदय में आते हैं और आधि, व्याधि या उपाधि के रूप में अपना भुगतान प्रारम्भ करते हैं । उस समय व्यक्ति रोता है, चीखता है और ईश्वर को कोसता है । पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने कहा हैक-का कर्म की अजब गति है, मत करना कोई नर नारी। हँसते हँसते बाँधे जीवड़ा, भुगते फिर मुश्किल भारी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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