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________________ ३७० आनन्द प्रवचन : सातवाँ माग उन्होंने गौतमस्वामी के पधारते ही हाथ जोड़े और गद्गद होकर कहा"भगवन् ! मैं आपकी प्रतीक्षा ही कर रहा था। कृपा करके अपने चरण मेरे नजदीक कीजिए ताकि उनकी धूलि मैं मस्तक पर चढ़ा सकूँ ।” __सच्चे संत और सच्चे श्रावक ऐसे होते हैं। तभी बे अपनी आत्मा को बिना किसी व्यवधान के सीघे शिवपुर की ओर ले जाते हैं। आज ऐसे महापुरुष कितने मिलते हैं ? हम देखते हैं कि समाज में, संघ में और घर-घर में सदा तू-तू, मैं-मैं चलती रहती है। कोई भी अपने थोथे अहंकार को नहीं छोड़ता और कोई भी किसी को नगण्य अपराध के लिए क्षमा नहीं कर सकता । फल यह होता है कि अपराध करने वाला भी और जिसके प्रति किया गया हो वह भी, दोनों ही अपनी गति बिगाड़ लेते हैं। इतना ही नहीं, आज के व्यक्ति तो बिना किसी का अपराध होने पर भी स्वभावतः और बिना वजह ही किसी न किसी की निन्दा, आलोचना करने में और किसी न किसी को नीचा दिखाने के प्रयत्न में लगे रहते हैं। जैसे उनका खाया-पिया इस सबके बिना पच नहीं सकता। पर-घर का कचरा अपने घर में क्यों ? अरे भाई ! औरों के दोष देखने से और उनकी आलोचना करने से आपकी आत्मा का कुछ भला होगा क्या ? नहीं, अपनी आत्मा का भला तो अपने दोषों को देखने और उन्हें मिटाने से ही हो सकेगा। दूसरों की बुराई करने से तो अपनी आत्मा और बुरी बन जाएगी तथा उस पर कर्मों का बोझ अधिक बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में औरों की बुराई करने का अर्थ यह होगा कि दूसरों के घर का कचरा उठाकर हम अपने घर में भरेंगे। यह अच्छी बात नहीं है। जब अपने बँगले में आप किसी अन्य के घर से उड़ा हुआ एक तिनका भी आने देना पसंद नहीं करते तो फिर दूसरों के दोष खोज-खोजकर अपनी आत्मा में दोषारोपण क्यों करते हैं ? इस बात को बड़ी गहराई से समझने की आवश्यकता है। किसी की निन्दाआलोचना करना या क्रोध के कारण कटुवचन कहना ये सब कषाय के परिणाम हैं और कषाय के कारण आत्मा महान् कर्मों का बन्धन करती हुई निम्न गतियों में जाती है । तनिक विचार कीजिए कि हमने पूर्व-जन्मों में तो न जाने कितने शुभ-कर्म करके पुण्य संचय किया होगा, जिससे यह मुक्ति को भी प्राप्त करा सकने वाला मानव-जीवन मिला है, पर अब इसे पाकर भी पुन: अशुभ एवं कषायपूर्ण कर्म करके फिर से अनन्त संसार बढ़ाना कहाँ की बुद्धिमानी है ? हाथ में आये हुए हीरे को बालक फैंक देता है। वह अपनी गलती के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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