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________________ संघस्य पूजा विधि: ३६३ करने पर वह सुकृत खाते में नहीं जायेगा तथा पुण्य रूपी फल प्रदान नहीं करेगा, किन्तु उसी को अगर गरीबों के लिए खर्च किया जायगा तो वह परलोक आपके साथ अनेक गुणा बनकर चलेगा । किसी कवि ने कहा है दीन को दीजिये होत दयावन्त मित्र को दीजिये प्रीति बढ़ावे । सेवक को दीजिये काम करे बहु, शत्रु शायर को दीजिये आदर पावे || को दीजिये वैर रहे नहि, याचक को दीजिये कीरति गावे । साधु को दीजिये मुक्ति मिले पिण, हाथ को दीधो तो ऐलो न जावे ॥ इस पद्य में कवि ने यही कहा है कि हाथ से दिया हुआ पैसा व्यर्थ नहीं जाता, कुछ न कुछ लाभ देता ही है, भले ही वह किसी को भी क्यों न दिया जाय । जैसे- किसी दीन दरिद्र को आप दान देते हैं तो दयालु की उपाधि प्राप्त करते हैं, मित्र की सहायता करते हैं तो उसका आप पर प्रेम बढ़ता है, सेवक को देने पर वह अधिक काम करता है और किसी शायर को देते हैं तो आदर पाते हैं । इसी प्रकार अगर शत्रु को भी दान देते हैं तो उसका आपके प्रति रहा हुआ वैर-विरोध मिट जाता है, याचक को देने पर वह आपको बदले में अनेकानेक आशीर्वाद देता हुआ आपकी कीर्ति बढ़ाता है और साधु को दान देने पर तो मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है । कहने का अभिप्राय यही है कि दिया हुआ धन या दान कुछ न कुछ आपको बदले में देता ही है, कभी निरर्थक नहीं जा सकता। इसलिए जितना भी जिसको देने की आपकी शक्ति हो, उतना औरों को देना अवश्य चाहिए । एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि पद्य में अधिकांश प्राप्ति मोक्ष को छोड़कर प्रत्यक्ष की बताई गई है । पर याद रखें कि दान के द्वारा अभी बताये हुए सभी प्रत्यक्ष लाभ तो होते ही हैं, साथ ही पुण्य-बन्ध के रूप में परोक्ष लाभ भी बड़ा जबर्दस्त होता जाता है । अपने लिए और अपने परिवार के लिए तो सभी खर्च करते हैं, पर इस खर्च से आपको पुण्य हासिल नहीं हो सकता । जिस प्रकार नवरात्रि में आप घट बैठाते हैं और उसके सामने अनाज बोते हैं तो वह उगता है किन्तु धान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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