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________________ ३५८ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति मार्गों के लिए कभी लड़ाई नहीं करते । वे आत्मशुद्धि को ही महत्त्व देते हैं और आत्म-शुद्धि ही मंजिल तक पहुंचाती है मार्ग नहीं। संघ की महिमा बन्धुओ, मैं आपको संघ का महत्त्व बता रहा था कि साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका, इन चारों का एकत्रित नाम संघ है और इन चारों को तीर्थ की उपमा देकर पूजनीय कहा गया है। शास्त्रकारों ने संघ की बड़ी महिमा गाई है तथा संस्कृत के एक श्लोक में तो यहाँ तक कहा गया है रत्नानामिव रोहणः क्षितिधरः खं तारकाणामिव, स्वर्ग:कल्पमहीरूहभिवसरः पंकेरहाणामिव । याथोधिः पयसामिवेन्दु महसां स्थानं गुणानामसावित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजा विधिः ॥ -सूक्ति मुक्तावली इस सुन्दर श्लोक में बताया गया है कि-"जिस प्रकार क्षितिधर यानी पर्वत नाना प्रकार के रत्नों को रखने वाला स्थान है, आकाश तारागणों को धारण करने वाला है, स्वर्ग कल्पवृक्षों का स्थान है, तालाब कमलों का स्थान है तथा सूर्य और चन्द्र तेज का खजाना है, इसी प्रकार संघ गुणों का आगार है अतः भगवान के समान इसकी पूजा का विधान किया गया है।" प्रश्न होता है कि संघ को इतना महिमाशाली क्यों बताया गया है । इसका उत्तर यही है कि संघ में ही पंच महाव्रतों को धारण करने वाले और अज्ञानियों को सन्मार्ग बताने वाले तपस्वी साधु-साध्वी हैं तथा बारह व्रतों का पालन करने वाले आदर्श श्रावक-श्राविकाएँ भी इसी में हैं जो अपने धन से अभावग्रस्त प्राणियों के अभावों को मिटाते हैं, तन से व्याधिग्रस्त या अशक्त प्राणियों की सेवा करते हैं और मन से सभी जीवों का कल्याण चाहते हैं। इसलिए ही संघ को तीर्थ और गुणों की खान कहा है। जिसके द्वारा असंख्य प्राणियों का भला होता है। किन्तु भाइयो ! जिस संघ को रत्न धारण करने वाले पर्वत के समान, असंख्य तारों को अपनी गोद में रखने वाले आकाश के समान, कल्पवृक्षों को जन्म देने वाले स्वर्ग के समान, कमलों को अंक में पोषित करने वाले तालाब के समान और तेज पुज सूर्य और चन्द्र के समान उच्च और महिमामय बताया है, उसी संघ में रहकर अगर हम लोग वैर-विरोध बढ़ायेंगे, सम्प्रदायों और मतों को लेकर खींचातानी करेंगे, एक-दूसरे की निन्दा तथा आलोचना करके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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