SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष गढ़ जीतवा को ३४६ वह राजा किसका कहलायेगा ? तो जीव राजा की प्रजा है छः कायों के प्राणी । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । इन छहों कायों में जितने भी प्राणी हैं ये सब प्रजाजन हैं और प्रजा की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है । तो बंधुओ ! पूज्य श्री त्रिलोक ऋषिजी महाराज ने जीवात्मा को राजा बनाकर बड़े ही सुन्दर और यथार्थ रूप में बता दिया है कि इसका मुख्य मंत्री कौन है ? इसका खजाना, रथ, हाथी, घोड़ा, सेना, शस्त्र, रणभेरी, नेजा और प्रजा क्या-क्या हैं ? वास्तव में इन सबकी सहायता से जीवात्मा संसार - संग्राम में विषय, कषाय, विकार और सबसे बढ़कर काल रूपी शत्रु से मुकाबला करता है और इन्हें विजित करके मोक्ष रूपी गढ़ को हासिल कर लेता है । एक और भजन में भी चेतन को उद्बोधन देते हुए यही कहा हैचेतन धरले अब ध्यान, जरा पढ़ले तू ज्ञान, जिससे बन जाये इनसान चहे सुमति सखी | तेरा होगा कल्याण, ऐसी देती है सल्ला, ले ले मोक्ष किल्ला, नहीं आवागमन । मिले सुख आठों याम, तेरा होवे सब काम, मेरा कहा तू मान, जरा मान, मान ! मान !! afa बड़े आग्रह एवं विकलता से कह रहा है - "अरे चेतन ! जरा ध्यान रखकर ज्ञान ग्रहण कर । अगर तूने ज्ञान हासिल नहीं किया तो याद रखना, तेरी एक भी क्रिया साधना में सहायक नहीं बनेगी और सर्वथा निरर्थक चली जाएगी । अज्ञानी साधक की दशा बताते हुए शास्त्र में कहा गया हैजहण्हा उत्तिण गओ, बहुअतरं रेणुयं द्रुभइ अंगे । सुछु वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ ॥ अर्थात् - जिस प्रकार हाथी स्नान करके फिर बहुत सी धूल अपने ऊपर डाल लेता है, उसी प्रकार अज्ञानी साधक साधना करता हुआ भी नया कर्ममल संचय करता जाता है । इसीलिए प्रत्येक मुमुक्षु को पहले ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उसके द्वारा हेय, ज्ञेय एवं उपादेय को समझकर अशुभ का त्याग करके शुभ में प्रवृत्त होना चाहिए। एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि ज्ञान सहज ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy