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________________ मोक्ष गढ़ जीतवा को ३४३ अधिक है, क्योंकि पहले तो धन कमाने में पाप कर्मों का बोझा आत्मा पर बढ़ता है और उसके बाद दिन-रात उसकी सुरक्षा में समय लगाना पड़ता है । परिणाम यह होता है कि सम्पूर्ण जीवन इन्हीं दो कार्यों में समाप्त हो जाता है, आत्मसाधना का वक्त ही नहीं मिलता । इस प्रकार धन के चक्कर में पड़ा हुआ व्यक्ति आत्मा पर कर्मों का बन्धन तो कर लेता है पर उनसे मुक्त होने का कोई प्रयत्न नहीं कर पाता । इसीलिए कहा गया है -- नत्थि एरिसो पासो पडिबन्धो अत्थि, सव्व जीवाणं सव्व लोए । -- प्रश्नव्याकरण सूत्र, १-५ अर्थात् -- संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई जाल एवं बन्धन नहीं है । वस्तुतः धन के जाल में उलझा हुआ व्यक्ति कभी चैन की साँस नहीं ले पाता तथा अहर्निश हाय-हाय करके कर्म - बन्धन करता रहता है । सुखी वही ज्ञानी पुरुष होता है जो धन से उदासीन और निस्पृह रहता है । 'ज्ञानसार' का एक श्लोक और आपके सामने रखता हूँ जो इस प्रकार हैभूशय्या भैक्ष्यमशनं, जीर्णवासो वनं गृहम् । तथापि निःस्पृहस्याहो ! चक्रिणोप्यधिकं सुखम् ॥ 1 अर्थात् — चाहे भूमि पर शयन करना पड़े, भिक्षा के द्वारा पेट भरना पड़े, कपड़े जीर्ण हों और वन में झोंपड़ी हो, फिर भी निस्पृह मनुष्य चक्रवर्ती सम्राट की अपेक्षा अधिक सुख का अनुभव करता है । तो बन्धुओ, जीवरूपी राजा ज्ञानरूपी धन से अपना कोष सदा भरे रखता है, उसे कभी रिक्त नहीं होने देता । ज्ञान के द्वारा ही वह पाप और पुण्य की पहचान करता है, निर्जरा के महत्त्व को समझता है एवं निष्काम तप करके कर्मों से मुक्ति हासिल करता है । पर आज आप में से कितने व्यक्ति हैं जो ज्ञान का महत्त्व समझते हैं और उसकी सहायता से धर्म के भेद-प्रभेदों को जानने की जिज्ञासा रखते हैं ? कहनेसुनने पर आप श्रावक के बारह व्रत भी ग्रहण कर लेते हैं पर उन व्रतों को पूर्णतया समझने की कोशिश करते हैं क्या ? नहीं, तब फिर व्रतों का पालन सच्चाई से कैसे हो सकता ? व्रत लेना तो बहुत सरल है । आप हाथ जोड़कर खड़े हो गये और हमने कुछ ही देर में आपको व्रत दे दिये । किन्तु उनके पालन का जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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