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________________ २२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग विद्या भण्यो हूँ वाद माटे, केटली कथनी कहूँ। साधु थई ने बाहर थी, दांभिक अंदर थी रहूँ॥ इन पद्यों से स्पष्ट है कि भले ही व्यक्ति अपने-आपको वैरागी साबित करने के लिए सफेद या गेरुए वस्त्र धारण करले और लच्छेदार भाषा में उपदेश देकर लोगों को प्रसन्न करदे । इतना ही नहीं वाद-विवाद करके अपनी विद्वत्ता का सिक्का औरों पर जमा दे तथा सम्पूर्ण क्रियाएँ साधुता का प्रदर्शन करने वाली करने लग जाय, किन्तु अगर उसके अन्तर्मानस को वे ठूती न हों और वह दंभ से भरा हुआ हो तो सब वृथा हो जाता है और अन्त में कहना पड़ता है भूत भावी ने सांप्रत तणे, भव नाथ हैं हारी गयो। स्वामी त्रिशंकु जेम हूँ, आकाश मां लटकी रह्यो। वस्तुतः बाह्यवेश एवं बाह्य क्रियाओं के ठीक होने पर भी अगर भावनाएँ इनके अनुसार न होकर उलटी और विकृत होती हैं तो मनुष्य त्रिशंकु के समान ही बीच में रह जाता है । न तो वह इस लोक के सुख या यश को स्थायी रख पाता है और न ही पर-लोक में शुभ फल की प्राप्ति कर पाता है। इसलिए साधक को या गृहस्थ को अपने बाह्य आचरण के अनुसार ही मन की भावनाओं को भी साधना चाहिए ताकि कर्म-बन्धनों से बचा जा सके और पूर्णतया बचाव न भी हो सके तो कम से कम निविड़ कर्म तो न बँधे । कर्मों के हलकेपन और चिकनेपन पर शास्त्रों में एक उदाहरण आता है एक बार गौतमस्वामी भगवान की आज्ञा लेकर आहार की गवेषणा के लिए गये। चलते-चलते जब वे एक घर के द्वार पर पहुँचे तो देखा कि गृहस्वामिनी दरवाजे पर बैठी हुई सब्जी सुधार रही थी। यह देखकर मुनि आगे बढ़ गये। जब उस बहन ने मुनिराज को द्वार पर से लौटते हुए देखा तो उसे घोर पश्चात्ताप हुआ कि-'अगर मैं इस प्रकार दरवाजे में बैठकर वनस्पति का छेदन न कर रही होती तो सन्त मेरे द्वार से खाली नहीं लौटते ।' इधर गौतमस्वामी जब दूसरे घर की ओर गए तो संयोगवश उस घर की बहन भी हरी सब्जी ही तैयार कर रही थी। मुनि वहाँ से भी चल दिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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