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________________ सुनकर सब कुछ जानिए ३२६ कल्याण में जुटा हुआ है, और मैं मोह में पड़कर निरर्थक ही कर्मों का बन्धन कर रही हूँ । सत्य तो यही है कि इस संसार में कौन किसका बेटा, कौन किसकी माता और कौन किसका पिता या पौत्र है ? यहाँ प्रत्येक जीव अनन्तकाल से प्रत्येक जीव के साथ नाते जोड़ता चला आ रहा है और हर जीव के हर जीव के साथ अनेकों सम्बन्ध हो चुके हैं। प्रत्येक जन्म में तो वह अपने सम्बन्धी बनाता रहा है, फिर इस एक जन्म के पुत्र के प्रति मुझे मोह रखने से क्या लाभ है ? यह मोह ही तो पुनः-पुनः जन्म और मरण कराता है।" इसी प्रकार माता मरुदेवी बोधि-दुर्लभ-भावना भाती रहीं और उनके परिणामों में विरक्ति का इतना उत्कृष्ट रसायन आ गया कि उसी समय हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। भावना की उत्कृष्टता का कितना अनुपम उदाहरण है ? बिना त्याग और तप के केवलज्ञान कैसे मिल गया ? ___लोग शंका करते हैं कि अनेक व्यक्ति वर्षों तक धर्मोपदेश सुनते हैं, सामायिक, प्रतिक्रमण एवं पौषध आदि धर्म-क्रियाएँ करते हैं तथा महीनों तक अनशन तप किया करते हैं, फिर भी उन्हें केवलज्ञान नहीं होता और मरुदेवी को ठाट से हाथी पर बैठे-बैठे ही इस ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो गई ? बन्धुओ, उस चौथे आरे में छल-कपट और दिखावा बहुत कम पाया जाता था । व्यक्ति जो कुछ करता था उसके पीछे उसकी भावनाएँ भी अपने कर्म के अनुसार होती थीं। यह नहीं होता था कि व्यक्ति करता कुछ था और चाहता कुछ था । आज का व्यक्ति वैसा नहीं है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हम और आप हैं । आप प्रवचन सुनते हैं, सामायिक प्रतिक्रमण करते हैं और तपस्या में भी कमी नहीं रखते; किन्तु यह सब निस्वार्थ भाव से या केवल कर्मों की निर्जरा के लिए आप नहीं करते । आपकी क्रियाओं के पीछे देखा-देखी, धर्मात्मा कहलवा कर प्रशंसा की कामना और इन सबसे बढ़कर यह इच्छा रहती है कि-'धर्मकार्य करने से हम सुखी बनेंगे, हमारा ऐश्वर्य बढ़ेगा और परिवार में अमन-चैन बना रहेगा । किसी को रोग-शोक नहीं घेरेगा।' __इन भावनाओं का परिणाम यह होता है कि आपकी सम्पूर्ण धर्म-क्रियाओं का फल सीमित हो जाता है । आप लोग अपने धर्म और तप के फल को स्वयं ही सांसारिक सुखों तक सीमित कर लेते हैं और इच्छानुसार पा भी जाते हैं । आप ही बताइये कि क्या ऐसा नहीं होता ? एक उपवास करके ही आप दूसरे व्यक्ति से पूछते हैं- 'तुम्हारे आज उपवास है क्या ?' यह इसीलिए कि आपके उपवास की जानकारी उसे हो जाय। दान देकर आप अपनी धन राशि को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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