SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऊंघो मत पंथीजन ! 317 ओर बढ़ता रहता है किन्तु जो जीव प्रमाद-रूपी निद्रा में गाफिल हो जाता है उसके ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूपी अमूल्य रत्नों को 'काम' चोर की सहायिका इन्द्रियाँ चुरा ले जाती हैं। वे मिथ्या सुख के भुलावे में जीव को डाल देती हैं और उसके समस्त सद्गुण-धन को लूट लेती हैं / एक राजस्थानी भजन में भी कहा हैजीवराज ! थे तो आछो पराक्रम फोड्यो म्हारा राजनर देही खेती मायने, पंखी बैठा पाँच, गुण रूपी, दाना चुगेरे लाम्बी ज्याँरी चोंच ......... / पद्य में जीवात्मा को चेतावनी देते हुए कहा गया है-“हे जीवराज ! तुमने बहुत पराक्रम करके मानव-देह रूपी खेत प्राप्त किया है और ज्ञान-ध्यान जप-तप आदि के बीज भी इसमें बो दिये हैं; किन्तु अब इन बीजों को फसल के रूप में अगर पाना चाहते हो तो बहुत सावधान रहो। क्योंकि तुम्हारी फसल को खाने के लिए पाँच इन्द्रिय रूपी विशालकाय पक्षी ताक लगाये बैठे हैं / इन पक्षियों की चोंचें भी साधारण नहीं हैं, बड़ी लम्बी हैं जो क्रोध, मान, माया, लोभ एवं विकार से निर्मित हुई हैं / स्पष्ट है कि अगर तुम जरा भी असावधान हुए तो ये पक्षी अपनी अत्यन्त दीर्घ चोंचों के द्वारा तुम्हारी सम्पूर्ण फसल खा जाएँगे और तुम हाथ मलते रह जाओगे / कवि श्री त्रिलोक ऋषि जी ने भी इसी प्रकार जीव को चेतावनी देते हुए प्रमाद-निद्रा से अविलम्ब जागने की प्रेरणा दी है। कहा है-"जन्म-जन्म का मिथ्यात्व रूपी अँधेरा दूर हुआ है और ज्ञान रूपी प्रकाश की प्रथम किरण प्रातः काल होने की सूचना दे रही है अतः हे बटोही ! अब तो तू जागृत हो जा और अपने सद्गुण रूपी आत्म-धन की सुरक्षा कर। यद्यपि सच्चे सन्त और सद्गुरु रूपी चौकीदार अब तक तेरे धन की सुरक्षा कर रहे हैं, किन्तु वे कहाँ तक तेरा साथ दे सकेंगे ? वे तुझे मार्ग बताएँगे, किन्तु चलना तो तुझे ही पड़ेगा। अतः अब भोर हो गई है, और तू ऊँघ मत, जागृत होकर ज्ञान-रूपी सूर्य के प्रकाश में अपना रास्ता तय करले अन्यथा अगर काल ने आक्रमण कर दिया और ज्ञानदीप बुझ गया तो फिर वह ढूढ़े नहीं मिलेगा।" संस्कृत में कहा गया है "निर्वाणदीपे किमु तेल दानम् ? चौरे गते वा किमु सावधानम् ?" कहते हैं-जब तक दीपक जल रहा है, तब तक पुनः तेल डाल लो अन्यथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy