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________________ हे धर्म ! तू ही जग का सहारा ३०३ श्री स्थानांगसूत्र में कहा गया है "किमिरागरत्तवत्थ समाणं लोभं अणुपविट्ठ जीवे, कालं करेइ नेरइएस उववज्जति ।" अर्थात् — कृमिराग यानी मजीठ के रंग के समान जीवन में कभी नहीं छूटने वाला लोभ आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है । इसीलिए आत्मा से कहा गया है कि - " तू निज-धर्म को भूलकर कषायादि पर-धर्म को अपनाकर निरर्थक दुःखों का भाजन क्यों बनता है ? जरा विचारकर कि तू कौन है, और तुझ में कैसी अनन्त शक्ति छिपी हुई है ? पर छन्द में लगकर तू कायर और निर्बल बन गया है जैसे भेड़ों के बीच में रहने वाला सिंह - शावक । कहा जाता है कि एक गड़रिया जंगल से अपनी भेड़ों को लाते समय सिंह के एक नन्हें से बच्चे को भी घेरकर ले आया । वह बच्चा छोटा था अतः नहीं जानता था कि मैं वन को गुँजाने वाले वनराज का पुत्र हूँ और मुझ में इतनी शक्ति है कि एक गर्जना करते ही सारी भेड़ों को गड़रिये के समेत ही यहाँ से भगा सकता हूँ । तो अपनी शक्ति से अनभिज्ञ होने के कारण सिंह का बच्चा गड़रिये की मार खाता हुआ भेड़ों के साथ आ गया और उन्हीं के साथ रहने लगा । जिस प्रकार भेड़ें रहतीं, वह भी रहता और जिस प्रकार वे डंडों की मार खातीं, वह भी खा लेता । पर एक दिन जब वह भेड़ों के साथ जंगल में गया तो वहाँ एक सिंह आ गया। सिंह ने जब भेड़ों के बीच अपनी ही जाति के छोटे सिंह को देखा तो चकित होकर सोचने लगा - " यह क्या ? सिंह होकर यह भेड़ों के साथ भटक रहा है ?" इस प्रकार का विचार मन में आने से वह किसी भेड़ को शिकार बनाना तो भूल गया और गर्जना करके सिंह के बच्चे को चेतावनी देने लगा । सिंह के बच्चे ने जब गर्जना करते हुए ठीक अपने ही समान दूसरे प्राणी को देखा तो तनिक-सा प्रयत्न करते ही वह भी गर्जना कर बैठा । परिणाम यह हुआ कि सारी भेड़ें और गड़रिया वहाँ से जान बचाकर भाग निकले और सिंह का बच्चा अपनी शक्ति को पहचान कर सिंह के साथ वन में चला गया । बन्धुओ, यही हाल अपनी आत्मा का भी है । यह आत्मा क्रोध, मान, माया एवं लोभादि पर-धर्म में लिप्त होने के कारण संसार-समुद्र में गोते लगाती रहती है । वह यह नहीं समझ पाती कि मुझमें स्वयं इतनी शक्ति है कि अगर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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