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________________ सोचो लोक स्वरूप को २६५ कहा गया है कि यह मानव-जीवन, उत्तम कुल और जिन वचनों के श्रवण का सुयोग बीत जाने पर पुनः पुनः नहीं मिलते, जिस प्रकार समुद्र में गिरा हुआ रत्न पुनः हाथ में नहीं आता । इस बात को वे ही व्यक्ति समझ पाते हैं जो सन्तों के द्वारा वीतराग - प्ररूपित वचनों को सुनते हैं । सन्त महात्मा किसी से धन-पैसा नहीं लेते और न ही किसी तरह की स्वार्थ भावना उनके हृदय में रहती है । वे प्रत्येक प्राणी के प्रति करुणा भाव होने के कारण सदुपदेश देते हैं और उन्हें सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करते हैं । इसीलिए भव्य प्राणी उनके समागम से प्रसन्न होता है तथा अपनी आत्मा के लिए हितकारी प्रेरणा ग्रहण करता है । कहा भी है धुनोति दवथु स्वान्तात्तनोत्यानंदथु परम् । धिनोति च मनोवृत्तिमहो साधु-समागमः ॥ अर्थात् - साधु-पुरुषों का समागम मन के सन्ताप को दूर करता है, आनन्द की वृद्धि करता है और चित्तवृत्ति को सन्तोष देता है । - आदिपुराण, ६-१६० किन्तु बन्धुओ, इस संसार में सभी मनुष्यों की विचारधारा समान नहीं होती । किन्हीं को त्याग तपस्या में आत्मिक सुख हासिल होता है और किन्हीं को सांसारिक सुखोपभोगों में । इसी प्रकार कोई सन्त-महात्माओं की संगति में रहना पसन्द करता है और कोई कुव्यसनधारी दुर्जन व्यक्तियों का साथ करता है । सन्त तुकाराम जी ऐसे मूर्ख और दुराचारी व्यक्तियों को ताड़ना देते हुए कहते हैं- Jain Education International साधु दर्शना न जासी गवारा, वेश्येचिया घरा, पुष्पे नेसी । वेश्यादासी मुरली, जगाची ओंगली, ती तुज सोवली-वाटे कैसी ? तुका म्हणे कांही लाज धरी लुच्च्या, टाचराच्या कुच्या भारा वेगी ॥ यानी- " अरे गँवार ! तू सन्त-महात्माओं के यहाँ अथवा मन्दिर में देव - दर्शनों के लिए तो जाता नहीं है, पर वेश्या के यहाँ फूल लेकर चल देता है जो कि दुनिया के लिए अमंगल स्वरूप और मनुष्य के जीवन को ही सर्वथा निरर्थक कर देने वाली होती है । " For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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