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________________ २६२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग की निन्दा, अवहेलना तथा अपवाद करने के कारण वह अपनी आत्मा को किल्विष युक्त तथा अवगुणों का घर बना लेता है और मरने के पश्चात् किल्विष जाति का देव बनता है जो कि अन्य स्वर्गीय देवों के सामने चाण्डाल के समान निंद्य एवं हेय माना जाता है । ऐसे नीच माने जाने वाले देव देवलोकों के बाह्यवर्ती स्थानों में रहते हैं तथा वहाँ का आयुष्य समाप्त करके मूक तिर्यंच प्राणी बनते हैं । आपने भगवान महावीर के जामाता जमाली मुनि के बारे में सुना ही होगा । वे स्वयं तो करनी करते ही थे, किन्तु भगवान महावीर की, उनके ज्ञान एवं सर्वज्ञता की घोर निन्दा करते थे । ऐसे व्यक्ति ही अपनी तपस्या के कारण देवगति प्राप्त करके भी अपनी किल्विष भावना के कारण चाण्डाल के समान किल्विषी देवता बनते हैं । साधना करते हुए भी कपट रखना तथा ज्ञान, भगवान, धर्माचार्य, संत तथा साधु की निन्दा करना किल्विषी होने के लक्षण हैं । तो मैं आपको यह बता रहा था कि बारह देवलोक तक देव और इन्द्र रहते हैं और उससे ऊपर अहमिन्द्र । उनसे ऊपर पाँच विमान और फिर सिद्धशिला स्थित है । इन सबको उलाँघ जाने वाला जीव जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है । नृत्य करते हुए मानवाकार लोक के ऊपरी हिस्से में कपाल का स्थान सिद्धशिला कहलाता है तथा उसके ऊपर निराकार भाग है । इस प्रकार अधोलोक मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का स्वरूप वर्णन किया जाता है । तीनों लोकों में उत्तम कौनसा है ? बन्धुओ ! अभी हमने लोक के तीनों अंगों का स्वरूप समझा है । पर केवल उनकी रचना, क्षेत्र या उनमें कौन-कौन रहते हैं यह जान लेने मात्र से ही हमारा विशेष लाभ नहीं है । लाभ हमें तभी हासिल हो सकता है जबकि हम इन तीनों लोकों के स्वरूपादि को समझकर आत्मा को इन तीनों से ऊपर मुक्तिधाम में पहुँचाएँ । हमें यही जानना है कि कौनसा लोक ऐसा है, जिसमें रहकर हम अपने इस उच्चतम उद्देश्य को प्राप्त करते हैं ? तीनों लोकों के स्वरूपों को जानने के लिए अभी हमने अधोलोक को लिया था, जिसमें नारकीयों, असुरों और परम-अधर्मी देवों का निवास है । मैं जानता हूँ कि आपमें से एक भी व्यक्ति नारकीय जीवन को स्वप्न में भी अपनाना पसन्द नहीं करेगा । यह ठीक भी है, भला नारकीय बनना किसे पसन्द आ सकता है ? रही बात वहाँ होने वाले भवनवासी या परमाधर्मी देवों की । भले ही वे देव कहलाते हैं, किन्तु वैसे देव बनने से भी कौनसा लाभ है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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