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________________ सोचो लोक स्वरूप को २८७ हैं तथा अपने जीवन को अशुभ से शुभ की ओर अविलम्ब मोड़ लेते हैं । किन्तु अभव्य या नास्तिक व्यक्ति सन्तों के उपदेशों से शिक्षा तो लेते नहीं, उलटे प्रश्नोत्तर करके उनका समय बर्बाद करते हैं । हमारे पास अनेक बार ऐसे व्यक्ति, जिनमें से अधिकांश नवयुवक होते हैं, आते हैं तथा व्यर्थ के कुतर्क करके हमारा और अपना समय नष्ट करते हैं । दुःख की बात तो यह है कि वे कुतर्क करने में भी अपनी बुद्धिमानी समझते हैं। नरक तो सात ही हैं, तब फिक्र किस बात की ? एक महात्मा जी किसी नगर में पहुँचे और वहाँ के धर्म-परायण व्यक्तियों के अनुरोध से उन्होंने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया । प्रवचन में उन्होंने कहा-- "माइयो ! आपने जब अनन्तानन्त पुण्यों के फलस्वरूप यह दुर्लभ मानव-जीवन पा लिया है तो इससे लाभ उठाओ । इसका लाभ आपको तभी मिलेगा जबकि आप सातों कुव्यसनों का त्याग करेंगे । मांसाहार, मदिरापान, जुआ, वेश्यागमन, शिकार एवं चोरी, ये सभी कुव्यसन महान् पाप-कर्मों का बन्धन करने वाले हैं और आत्मा को नरकों में ले जाने वाले हैं। इन व्यसनों में से जो व्यक्ति एक को भी अपना लेता है, उसके पीछे अन्य व्यसनों की सेना भी चुपचाप आ जाती है तथा मनुष्य को धर दबोचती है। महाकवि कालिदास ने यही बात राजा भोज को एक बार बड़े मनोरंजक ढंग से समझाई थी। हुआ यह कि कालिदास ने एक बार भिखारी का वेश धारण किया और ऊपर से ऐसी कंथड़ी ओढ़ी, जिसमें हजारों बड़े-बड़े छिद्र थे। ऐसे ही वेश में वे राजा भोज के दरबार में पहुंच गये । भोज ने कवि को नहीं पहचाना और अत्यन्त साधारण भिक्षुक समझकर हंसते हुए कहा--"वाह भिक्षुक राज ! कंथा तो तुमने बड़ी अच्छी ओढ़ रखी है ? कितने छेद हैं इसमें ? भिक्षुक रूपी कालिदास ने गम्भीरतापूर्वक उत्तर दिया-"महाराज यह कंथा नहीं, मछलियाँ पकड़ने का जाल है।" "अरे ! तुम क्या मछलियाँ खाते हो ?" राजा ने आश्चर्यपूर्वक पूछा । "हाँ, क्योंकि शराब पीता हूँ। शराब पीने पर माँस खाने की इच्छा तो होती ही है।" __ "शराब भी पीते हो ?" भोज को बड़ा आश्चर्य हुआ। पर भिक्षुक ने तुरन्त उत्तर दिया-- "शराब तो पीनी ही पड़ती है, क्योंकि मैं वेश्या के यहाँ जाता हूँ । भला आप ही बताइये ? वेश्या के यहाँ शराब न पीने पर कैसे चल सकता है ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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