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________________ २४२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग को आने में देर हो जाती तो व्यास जी भजन-कीर्तन आदि प्रारम्भ नहीं करते थे और जब वे आ जाते थे, तभी सत्संग किया जाता था। ____ व्यासजी के शिष्यों ने पहले तो इस बात पर ध्यान नहीं दिया, पर जब कई बार ऐसा हुआ तो उन लोगों को अपने गुरुजी की इस बात पर झुंझलाहट आने लगी। ____एक दिन तो जनक के आने में देर होने पर और उनकी प्रतीक्षा में सत्संग प्रारम्भ न किया जाने पर एक शिष्य ने कह दिया-"भगवन् ! ऐसा लगता है कि सत्ता और सम्पत्ति का ही सब जगह सम्मान होता है। किन्तु आपको भी ऐसा करते देखकर हमें बड़ा आश्चर्य होता है।" इस पर महर्षि ने पूछा- "किस वजह से तुम ऐसा कह रहे हो ?" शिष्य बोला- "आप तब तक कीर्तन प्रारम्भ नहीं करते हैं, जब तक राजा जनक यहाँ नहीं आ जाते । क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि आप भी ऐश्वर्य एवं सत्ता सम्पन्न होने के कारण ही राजा जनक को महत्त्व देते हैं ? ऐसा क्यों ? क्या आपके हृदय में उनसे कोई स्वार्थ है ? अगर नहीं है तो फिर उनकी प्रतीक्षा में सत्संग क्यों रुका रहता है ?" व्यासजी ने कहा- "वत्स ! इस बात का उत्तर तुम्हें फिर किसी दिन दूंगा।" ___और कुछ दिन पश्चात् एक दिन, जबकि सत्संग चालू था और सब उसमें भाग ले रहे थे, तब महर्षि व्यास ने अपने योगबल से राजमहल में आग लगा दी। चारों तरफ हाहाकार मच गया और सत्संग में उपस्थित श्रोता भी व्यग्र हो उठे। सोचने लगे- "अभी आग महल में लगी है, पर थोड़ी ही देर में वह मिथिला नगरी को भी अपनी लपेट में ले सकती है।" यह विचार आते ही लोग अपने-अपने घरों की ओर चल दिये । व्यासजी के शिष्य भी झटपट अपनी झोलियां कन्धों पर और कमंडल हाथ में लेकर वहाँ से रवाना होने के लिए तैयार हो गये तथा गुरुजी के समीप आकर उनके भी उठने की प्रतीक्षा करने लगे। पर उस समय सभी ने चकित होकर देखा कि राजा जनक पूर्ववत् आत्मचिन्तन में लीन शांति से बैठे हुए हैं। घबराहट का कोई चिह्न उनके सौम्य एवं प्रफुल्ल मुख पर नहीं है । व्यासजी ने उनसे कहा "जनक ! तुम्हारे महलों में ही आग सबसे पहले लगी है, और तुम चुपचाप यहीं बैठे हो ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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