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________________ २४० आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग संत-महात्मा मन को भी भ्रमर की उपमा देते हुए कहा करते हैं --अरे मन रूपी भँवरे ! तू माया के लोभ में पड़कर उसे बटोरता ही रहता है तथा आत्म-कल्याण के कार्य को वृद्धावस्था के लिए रख छोड़ता है । किन्तु याद रख जिस प्रकार सुगन्ध एवं पराग के मोह में पड़ा भ्रमर कमल में कैद हो जाता है और उसके बाहर निकलने से पहले ही हाथी कमल को उखाड़ देता है, इसी प्रकार तू धन इकट्ठा करने के चक्कर में रहकर आत्म-साधन नहीं कर पायेगा तथा कालरूपी हाथी आकर तेरी जीवन डोरी तोड़ डालेगा। यद्यपि भ्रमर में इतनी शक्ति होती है कि वह लकड़ी में छेद कर देता है पर कमल की कोमल पंखुड़ियों को नहीं बींध पाता। ऐसा क्यों ? इसलिए कि कमल की सुगन्ध में वह मस्त रहता है तथा उसके प्रति अपार आसक्ति रखता है। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा में भी अनन्त शक्ति है, जिसके द्वारा वह चाहे तो एक समय मात्र में ही सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर सकता है, किन्तु धनवैभव एवं परिवार के प्रति मोह-ग्रस्त रहने के कारण वह न तो अपनी शक्ति का प्रयोग कर पाता है और न ही आत्म-कल्याण के लिए समय ही निकाल सकता है । परिणाम यह होता है कि मुक्ति के मनोरथ हृदय में लिए ही काल का ग्रास बनकर दुर्गति की ओर प्रयाण कर जाता है। तो मैं आपको यह बता रहा था कि भ्रमर घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर मरता है और मछली रसना-इन्द्रिय के वश में होकर । मच्छीमार व्यक्ति लोहे के काँटे में आटा लगाकर उसे रस्सी के सहारे जल में डाल देते हैं । जब मछली आटा खाने के लिए उसे निगल जाती है तो कांटा उसके गले में फंसकर रह जाता है। फल यह होता है कि डोरी के सहारे वह बाहर खींच ली जाती है और मृत्यु को प्राप्त होती है। अब पाँचवीं, स्पर्श-इन्द्रिय का नमूना देखिये । एक विशालकाय हाथी भी इस इन्द्रिय के द्वारा पराधीन होकर रह जाता है। कहते हैं कि हाथी को पकड़ने के लिए एक विशाल गड्ढा खोदा जाता है तथा हथिनी का आकार बनाकर उस गड्ढे में उतार देते हैं । जब मद में आया हुआ हाथी वहाँ आता है तो गड्ढे में हथिनी समझकर उसमें गिर पड़ता है और फिर निकल नहीं पाता। . मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि हरिण, पतिंगा, भ्रमर, मछली एवं हाथी जैसे प्राणियों को एक-एक इन्द्रिय के वश में होकर भी अपने प्राण गँवाने पड़ते हैं तो फिर मानव तो पाँचों इन्द्रियों के आकर्षण में पड़ा रहकर नाना प्रकार के कर्मों का बन्धन यानी आस्रव में उलझा रहता है, तब फिर उसकी क्या दशा होगी ? कितनी बार उसे जन्म ले-लेकर मरना पड़ेगा ? कोई हिसाब नहीं है । अतः सर्वोत्तम यही है कि आस्रव को निर्मूल करने में जुटा जाय । . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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