SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० आनन्द प्रवचन: सातवाँ भाग 'श्री उत्तराध्ययनसूत्र' के बारहवें अध्याय में कहा भी हैजाईमयपडिथद्धा, हिंसगा अजिइन्दिया । अबम्भचारिणो बाला, इमं वयणमब्बवी ॥ अर्थात् — उच्च जाति के गर्व से भरे हुए, हिंसा करने वाले, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी एवं अनार्य ब्राह्मण हरिकेशी मुनि का उपहास करते हुए कहने लगेकयरे तुमं इय अदंसणिज्जे, ओमचेलगा काए व आसा इहमागओ सि । पंसुपिसायभूया, गच्छखलाहि किमिहं ठिओसि ॥ ब्राह्मण मुनि से बोले - "कौन है तू जो कि इस प्रकार अदर्शनीय है ? किस आशा से यहाँ पर आया है ? रे ! अति जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को धारण करने वाले पिशाच रूप, जा हमारी दृष्टि से भी दूर हो जा ! यहाँ पर क्यों खड़ा है ?" ब्राह्मणों के ऐसे घोर तिरस्कारपूर्ण शब्दों को सुनकर महामुनि हरिकेशी तो मौन रहे किन्तु उनकी सेवा में छाया की भाँति रहने वाले यक्ष ने उन्हीं के शरीर में प्रवेश किया और उन्हें साधु कैसी शिक्षा लेते हैं यह बताया । पर ब्राह्मण यह सुनकर भी बोले - " हमारे यहाँ भोजन शास्त्रोक्त विधि से तैयार किया गया है अतः शूद्र को नहीं दिया जा सकता । क्योंकि शास्त्र शूद्र को दान, पाठ और हवि देने का निषेध करते हैं ।" इस पर भी हरिकेशी मुनि के शरीर में स्थित यक्ष ने मुनि की जबानी कहा – “भाई पाँच समिति से युक्त, तीनों गुप्तियों से गुप्त और मुझ जितेन्द्रिय को भी अगर तुम निर्दोष आहार दान नहीं दोगे तो तुम्हारे इस यज्ञ के अनुष्ठान से क्या लाभ प्राप्त होगा ?" ब्राह्मणों को मुनि के ये वचन सुनकर और भी क्रोध आया और उन्होंने यज्ञशाला में स्थित कई शिक्षार्थी ब्राह्मण कुमारों को संकेत किया कि वे मारपीट कर इस साधु को यहाँ से निकाल दे । उन ब्राह्मण कुमारों ने ऐसा ही किया । यद्यपि मुनि हरिकेशी तो इस उपसर्ग को पूर्ण समभाव से सहन कर लेते किन्तु यक्ष से मुनि को मारा-पीटा जाना सहन नहीं हुआ और उसने आकाश में भयंकर रूप धारण करके उन छात्रों की खूब मरम्मत की । अनेकों का शरीर क्षत-विक्षत कर दिया और अनेकों के मुख से रुधिर बहने लगा । सभी की दशा बड़ी दयनीय हो गई । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy