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________________ १६६ आनन्द प्रवचन : सातवां भाग क्या यह सब समझकर मानव को नहीं चाहिए कि वह पारिवारिक कर्तव्य करते हुए भी अपनी आत्मा के लिए किये जाने वाले आवश्यक कर्तव्य को न भूले ? अर्थात् यह लोक छोड़ने के पश्चात् आत्मा को नरक निगोदादि का भ्रमण न करना पड़े, इसके लिए भी धर्माचरण करे । उसे सदा यही विचार करना चाहिए कि मैं अकेला आया था और अकेला ही जाऊंगा। कहा भी है घिरे रहो परिवार से पर भूलो न विवेक । रहा कभी मैं एक था अन्त एक का एक ।। मनुष्य मेरा-मेरा करता हुआ जीवन में कभी 'मैं' क्या हूँ यह नहीं सोच पाता, पर कवि ने कहा है-"भाई ! भले ही परिवार से घिरे रहो पर आत्मरूप को मत भूलो।" जो व्यक्ति अपनी आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप को समझता है, वह फिर उससे विमुख नहीं रह सकता । कभी न कभी तो उसे भान आता ही है कि मैं अपने लिए क्या कर रहा हूँ और क्या नहीं ? कर्मजन्य फल को समझकर वह संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहता है। कर्मों की करामात अभी मैंने आपको बताया है कि जो भव्य प्राणी कर्मों की कारस्तानी को समझ लेते हैं, वे उनसे दूर रहने का भरसक प्रयत्न करते हैं । वे जान लेते हैं कि इस संसार में भोगोपभोगों के अनेकानेक पदार्थ चारों ओर मन को ललचाने के लिए या आकर्षित करने के लिए फैले रहते हैं और व्यक्ति ज्योंही उन्हें अपनाकर भोगने लगता है, त्योंही सदा घात लगाए रहने वाले कर्म आकर जीवात्मा को अपने फन्दे में जकड़ लेते हैं । परिणाम यह होता है कि एगया खत्तियो होइ, तओ चण्डाल वोक्कसो। तओ कीडपयंगो य, तओ कुंथुपिवीलिया ॥ -श्री उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३, गा० ४ यानी-कर्मों से घिरा हुआ जीव कभी क्षत्रिय बनता है, कभी चांडाल, कभी वर्णसंकर और कभी-कभी कीट-पतिंगा, कुंथुआ और चींटी का शरीर प्राप्त करता है। इतना ही नहीं, वह कभी-कभी इनसे भी सूक्ष्म प्राणी बन जाता है, जैसा कि अभी मैंने बताया था कि निगोद में पहुँचकर वह एक श्वास जितने समय में अठारह बार जन्म-मरण करता रहता है। 'भारिल्लजी' ने भी अपनी लिखी हुई संसार-भावना के अन्तर्गत कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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