SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सब टुकुर-टुकुर हेरेंगे... १६१ जानते हैं आप ! श्रोणिक की बात का मुनि ने क्या उत्तर दिया था ? उन्होंने कहा "अप्पणा अनाहो सन्तो, कहं नाहो भविस्ससि ?" यानी-"तुम तो स्वयं ही अनाथ हो, तो फिर दूसरे के नाथ किस प्रकार बन सकोगे ?" अनाथी मुनि के यह शब्द सुनकर राजा श्रेणिक मानो आसमान से गिर पड़े। उन्होंने कहा- “महाराज ! आप शायद यह नहीं जानते हैं कि मैं कौन हूँ ? मैं मगध देश का सम्राट श्रोणिक हूँ और मेरे विशाल राज्य में कोई कमी नहीं है । लाखों व्यक्ति मेरी शरण में रहते हैं तथा आपको भी मैं बड़े सुख से रख सकता हूँ। मेरे पास राज्य-पाट, महल-मकान, हाथी-घोड़े और विशाल सैन्य संग्रह है । आपको तनिक भी किसी प्रकार की कमी महसूस नहीं होगी।" अनाथी मुनि राजा की बात सुनकर मुस्कुराए और उन्हें बताया कि-"मेरे पिता धनसंचय के पास भी अपार वैभव था। मेरे माता, पिता, भाई, पत्नी एवं अन्य अनेक कुटुम्बी थे, किन्तु जब मैं रोग-पीड़ित हुआ तो सारे कुटुम्बी मिलकर और पानी की तरह पैसा बहाकर भी मुझे स्वस्थ नहीं कर सके । तभी मैंने समझ लिया कि मेरा कोई नाथ नहीं है क्योंकि मुझे रोग से कोई छुटकारा दिलाने में समर्थ नहीं है । समर्थ है तो मात्र एक धर्म । धर्म ही व्यक्ति को जन्म, जरा, व्याधि एवं मरण से सदा के लिए बचा सकता है अतः वही नाथ हो सकता है। भला आप ही बताइये राजन् ! क्या आप मेरे नाथ बनकर मुझे इन सभी से बचाए रख सकते हैं ?" श्रोणिक क्या उत्तर देते ? बात सत्य थी। राजा स्वयं को भी तो जन्म, जरा, व्याधि और मृत्यु से नहीं बचा सकते थे, फिर अनाथी मुनि को बचा लेने का आश्वासन किस प्रकार देते ? वे महसूस करने लगे कि- "अनाथी मुनि की बात यथार्थ है । मैं स्वयं अपना नाथ नहीं हो सकता तो फिर औरों का नाथ तो बन ही कैसे सकता हूँ ?" 'भावना शतक' में अशरण भावना बताने के लिए अनाथी मुनि का उदाहरण देते हुए कहा है यस्यागारे विपुल विभवः कोटिशो गोगजाश्वः । रम्या रंभा जनकजननी बंधवो मित्रवर्गः ॥ तस्याभून्नोव्यथनहरणे कोऽपि साहाय्यकारी। तेनानाथोऽजनि स च युवा, काकथापामराणाम् ॥ श्लोक में कहा गया है-"जिसके घर में अपार वैभव था, करोड़ों गायें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy