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________________ सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं १७६ होता है । अगर किसी के पास खूब धन है और उसके द्वारा वह अपने बन्धुबांधवों की तथा मित्र-दोस्तों की खातिरदारी कर सकता है तो वह सबका प्रिय बन जाता है । पर अगर वही व्यक्ति दुर्भाग्यवश दरिद्र हो जाय तो सभी उसकी ओर से कबूतर के समान आँखें फेर लेते हैं । कहने का आशय यही है कि संसार के सम्बन्धियों से जो प्रेम का नाता होता है वह अस्थिर होता है और किसी भी कारण से, कभी भी टूट जाता है। इसके अलावा मृत्यु भी प्रिय से प्रिय सम्बन्धी के वियोग का कारण बन जाती है । आपने सुना होगा कि सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र गंगा नदी को लाने के लिये गये । लेकिन न गंगा नदी आई न उनके पुत्र वापिस लौटे । सब के सब मिट्टी में दब गये । यह समाचार भी सगर को उनकी कुलदेवी ने आकर दिया। वह एक बुढ़िया के रूप में आई और चक्रवर्ती के समक्ष रोने लगी। कारण पूछने पर उसने बताया- 'मेरा पुत्र मर गया है।' सगर चक्रवर्ती ने यह सुनकर उसे समझाया कि इस संसार में जन्म-मरण तो प्रत्येक जीव के साथ लगा ही रहता है, जिसका संयोग होगा, उससे वियोग होना अवश्यम्भावी है अतः तुम दुःख मत करो। इस पर वृद्धा ने उन्हें उनके साठ हजार पुत्रों की मृत्यु का समाचार दिया । कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को इस संसार में धन, तन एवं परिवार के लिए यही विचार रखना चाहिए कि ये सब अनित्य हैं और किसी भी समय इनका वियोग हो सकता है । किन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि लोग यह सब अपनी आँखों से देखते हुए भी शिक्षा नहीं लेते। बिरले ही भव्य पुरुष ऐसे होते हैं जो यथार्थता का अनुभव करते हैं तथा सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी जल-कमलवत् संसार से उदासीन एवं विरागी रहते हैं। श्मशानिया वैराग्य एक बार महात्मा कबीर से कोई व्यक्ति आवश्यक कार्य से मिलने आया । उस समय कबीर जी किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने से शव-यात्रा में सम्मिलित होकर श्मशान गये हुए थे। आगन्तुक बड़ी दूर से आया था और शीघ्र ही कबीर से मिलना चाहता था । अतः उनकी पत्नी ने कहा "आपको जल्दी है तो श्मशान की ओर जाकर ही उनसे मिल लीजिये।" यह सुनकर वह व्यक्ति हैरान होता हुआ बोला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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