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________________ १७२ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग किन्तु आश्चर्य की बात थी कि जहाँ उपस्थित अन्य सभी व्यक्ति दुःखी एवं शोकमग्न थे, स्वयं संत अत्यन्त प्रसन्न एवं हर्ष-विभोर दिखाई दे रहे थे । उनका चेहरा आत्मानंद एवं परम शांति से ओतप्रोत था । यह देखकर एक भक्त से नहीं रहा गया और उसने पूछ लिया-"भगवन् ! इस समय भी आपके चेहरे पर इतनी प्रसन्नता कैसे है ? क्या आपको अपनी स्थिति के लिए तनिक भी दुःख या मायूसी नहीं ?" संत शांतिपूर्वक धीरे-धीरे बोले- "भाई खेद कैसा ? यह शरीर अनित्य है और एक दिन इसे छोड़ना होगा, यह तो मैं पहले ही जानता था । इस समय भी मुझे इसके छूटने का रंचमात्र भी दुःख नहीं है । क्योंकि प्रथम तो मैंने इसका पूरा लाभ ले लिया है, दूसरे मुझे यही लग रहा है कि मैं स्वयं जहाँ हूँ वहाँ मृत्यु का आगमन होता ही नहीं। यानी मैं केवल मेरी आत्मा को लेकर हूँ, उसकी मृत्यु तो होनी ही नहीं है । मेरा स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय और शाश्वत है अतः इस समय भी मैं उसी की साधना में तल्लीन हूँ । अपने शुद्ध, अजर, अमर और अविनाशी उस चिदानन्दमय रूप के अलावा मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है । इसीलिए मेरे मन को किंचित मात्र भी खेद या भय किसी प्रकार का नहीं है। शरीर के अवश्यम्भावी परिवर्तन के लिए मैं किसलिए विचलित होऊँगा ? तुम सबसे भी मेरा यही कहना है कि मेरे लिए किसी को दुःख करने की आवश्यकता ही नहीं है । यह तो और भी अच्छी बात है कि मैं इस जर्जर शरीर को त्यागने पर नवीन शरीर प्राप्त करूंगा और वह इसकी अपेक्षा मेरी साधना में अधिक सहायक बनेगा।" ___ संत की बात सुनकर उपस्थित सभी व्यक्ति चकित हो गये और संत के कथन की यथार्थता का अनुभव करने लगे। भक्त कवि 'दीन' ने भी अपने एक पद्य में संसार की अनित्यता और आत्मा की अमरता पर एक सुन्दर कुडलिया लिखी है । वह इस प्रकार है जितना दीसे थिर नहीं, थिर है निरंजन राम । ठाट-बाट नर थिर नहीं, नाहीं थिर धन-धाम । नाहीं थिर धन-धाम, गाय, हस्ती अरु घोड़ा । नजर आत थिर नहीं नाहिं थिर साथ संजोड़ा । कहे दीन दरवेश कहा इतने पर इतना । थिर निज मन सत शब्द नाहिं थिर दीसे जितना ॥ कुंडलिया में यही कहा है-इस संसार में धन, धाम, गाय, घोड़ा, हाथी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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