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________________ का वर्षा जब कृषि सुखानी १४३ आदि देने का विधान है वह इसीलिए कि कपट करना पाप है। इसी प्रकार आज हम प्रतिदिन सुनते हैं और अखवारों में पढ़ते हैं कि अमुक धनी के यहाँ से ब्लैक का रुपया या सोना-चाँदी सरकार ने छापा मार कर जब्त किया और धनिक को हिरासत में ले लिया है। ऐसा सरकार क्यों करती है ? इसीलिए कि परिग्रह करना पाप है और जो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन संचय करके रखता है वह परोक्ष रूप से अन्य अनेक व्यक्तियों की रोटी छीनता है। अतः परिग्रह रूपी पाप को मिटाने के लिए सरकार लोगों को शिक्षा देती है। इस प्रकार राज्य के समस्त नियम-उपनियम धर्म की रक्षा करने के लिए ही तो हैं । इन सुन्दर नियमों के अतिरिक्त और धर्म कौन-सा है ? कहा है"स धर्मोयत्र नाधर्मः।" यानी धर्म वहीं है जहाँ अधर्म नहीं है। दूसरे शब्दों में अधर्म का न होना ही धर्म है । धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ या सामायिकप्रतिक्रमण आदि करना नहीं है । ये सब उत्तम क्रियाएँ तो मन को शुद्ध रखने के लिए या किये हुए पापों का प्रायश्चित करने के लिए हैं । कृत पापों के लिए पश्चात्ताप और पुनः उन्हें न करने की भावना जब की जाती है वही प्रतिक्रमण है। आखिर व्यक्ति को सुबह-शाम थोड़े बहत काल के लिए चिन्तन तो करना ही चाहिए कि आज मुझसे क्या भूल हुई या कौन-सा पाप हुआ ? ऐसा किसी भी समय न सोचने पर भला वह किस प्रकार अपनी गलतियों को ध्यान में ला सकता है और उन्हें पुनः न करने की प्रतिज्ञा कर सकता है ? बस, इसीलिए प्रतिक्रमण आदि किया जाता है । तो बन्धुओ, धर्म शासन से अलग नहीं है तथा शासन-कार्य चलाने के लिए जो भी कानून बनाये जाते हैं वे धर्म की रक्षा करते हैं । आज अछूतों को अछूत न मानने के लिए भी नियम बनाया गया है तथा उन्हें मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त है। साथ ही ऐसे शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों को योग्यतानुसार प्रत्येक नीचा या ऊँचा पद दिया जाता है । पर क्या यह नियम वर्तमान में ही बना है ? नहीं। भगवान महावीर ने भी अपने काल में जातिवाद की घोर भर्त्सना की थी तथा उसका प्रबल विरोध किया था। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि किसी भी जाति में उत्पन्न पुरुष या स्त्री सम्मान हैं तथा समान भाव से धर्म-साधना करने के अधिकारी हैं। इस विषय में ऊँची जाति वालों को जो अधिकार हैं, वही निम्न समझी जाने वाली जाति के व्यक्तियों को भी हैं । महामुनि हरिकेशी चांडाल कुल में उत्पन्न हुए थे, किन्तु क्या उन्हें किसी भी अन्य उच्च कुलोत्पन्न साधु से कम महत्त्व दिया गया था ? नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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