SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग प्रदेशी राजा आवेशपूर्वक बोला- "कभी नहीं महाराज ! मैं न तो उसकी एक भी बात सुनूंगा और न ही उसे एक क्षण के लिए भी कहीं जाने दूंगा।" __ केशी श्रमण ने राजा की यह बात सुनकर गम्भीरतापूर्वक कहा-"राजन् ! तुम्हारे दादाजी के साथ भी यही हुआ है। उन्होंने अपने जीवन में जो घोर पाप किये हैं, उनके फलस्वरूप यमदूतों ने उन्हें अपने फन्दे में जकड़ रखा है। तुम्हारे दादाजी बहुत चाहते हैं कि तुम्हें यहाँ आकर नरक के विषय में और वहाँ मिलने वाले घोर दुःखों के विषय में बतायें तथा तुम्हें भी अशुभ कार्यों को न करने की प्रेरणा दें, किन्तु उन्हें यमदूत उसी प्रकार नहीं छोड़ते, जिस प्रकार तुम अपने अपराधी को छोड़ना नहीं चाहते और कहते हो कि पापी को छोड़ा कैसे जा सकता है ? तो एक पाप करने वाले के लिए भी जब तुम इस प्रकार के विचार रखते हो और क्षण भर के लिए भी छुटकारा देना नहीं चाहते, फिर तुम्हारे दादाजी ने तो जीवन भर में असंख्य पाप किये हैं और इस कारण तुम्हीं बताओ कि यमदूत उन्हें तुम्हारे पास आने की इजाजत कैसे दे सकते हैं ? चाहते हुए भी वे आ नहीं सकते, और नहीं आये हैं। इसलिए नरक नहीं है यह तुम कैसे मानते हो ?" वस्तुतः केशी श्रमण का कथन यथार्थ है और उस पर प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना चाहिए। क्योंकि स्वर्ग, नरक अथवा परलोक के विषय में सन्देह करने वालों की आज भी कमी नहीं है। अनेक व्यक्ति तो हम से आकर प्रश्न कर बैठते हैं-"महाराज ! कौन जाने परलोक है या नहीं और स्वर्ग या नरक कहीं हैं, इस पर कैसे विश्वास किया जाय ? क्योंकि कभी भी तो कोई जीव स्वर्ग से या नरक से आकर उनके विषय में हमें नहीं बताते ।" और तो क्या अच्छे-अच्छे साधकों के मन में भी कभी-कभी ऐसी भावना आये बिना नहीं रहती कि शास्त्रों में जम्बू क्षेत्र आदि जिन अनेक स्थानों के वर्णन हैं, वे क्षेत्र कहाँ हैं, और कौन जाने हैं या नहीं ? पर बन्धुओ ! अभी कल ही मैंने आपको बताया था कि अगर पूर्व जन्म और पूर्व कर्म नहीं होते तो पंचभूतों से निर्मित सभी जीव समान होते । कोई अमीर और कोई गरीब नहीं होता, कोई पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण सौन्दर्य का धनी और कोई अपंग या अपाहिज नहीं होता तथा कोई पशु, पक्षी, कीट, पतंग या हाथी जैसा विशालकाय और कोई सुई की नोंक के समान सूक्ष्म आकार वाला नहीं होता । सबसे बड़ी बात तो यही है कि सभी एक सरीखे मनुष्य ही होते । पशु आदि अन्य अनेकानेक प्रकार के प्राणी क्यों होते ? जगत में इन विभिन्नताओं को देखकर भी तो हमें विश्वास करना चाहिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy