SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग रहता है । यह बात तो आप सेठ-साहूकार अच्छी तरह से जानते ही हैं कि किस प्रकार आप अपनी पूंजी को अनेक गुनी अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं तथा सोतेजागते उस विषय में सोचते रहते हैं । __ तो मैं चिन्तन के विषय में बता रहा हूँ कि पढ़े-लिखे व्यक्ति अपने अलग ढंग से चिन्तन करते हैं और दार्शनिक तथा वैज्ञानिक आदि अपने-अपने विषयों के लिए अलग-अलग तरीकों से। कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक ब्यक्ति के सोचनेविचारने का और उस पर चिन्तन करने का अपना भिन्न-भिन्न विषय होता है । __ अब हमें यह देखना है कि किस प्रकार का चिन्तन आत्मा के लिए लाभदायक बनता है ? अभी मैंने उदाहरण के तौर पर आपको बताया है कि चोर, डाकू, किसान, मजदूर, शिक्षक, दार्शनिक एवं वैज्ञानिक आदि-आदि सभी के चिन्तन का विषय अलग-अलग होता है पर अधिकांश व्यक्तियों का चिन्तन भौतिक विषयों को लेकर ही चलता रहता है और इन सब विषयों पर अत्यधिक विचार करने से आत्मा का कोई लाभ नहीं होता। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए सदा चिन्तन, प्रयत्न करने से और उन्हें अधिक से अधिक पा लेने से भी आत्मा को क्या लाभ हो सकता है जबकि वह सब कुछ जड़ है और जड़ शरीर के साथ ही यहाँ छूट जाने वाला है। लाभ तो उस आध्यात्मिक चिन्तन से है जिससे कर्म नष्ट होते हैं तथा आत्मा हलकी होकर ऊँची उठती है । वह चिन्तन आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक एवं तत्त्वादि के विषय में विचार करना होता है तथा ऐसे आत्म-चिन्तन से मन निर्दोष होकर कर्मों की निर्जरा में जुट जाता है। चिन्तन का समय बन्धुओ, वैसे तो चिन्तन किसी भी समय किया जा सकता है और न चाहने पर भी वक्त-वे-वक्त दिमाग चिन्तन के क्षेत्र में उतर जाता है किन्तु आत्म-चिन्तन आत्मा के लिए शुभ कदम है। इसलिए इसे शुभ समय में करना उचित है। प्रत्येक अच्छा कार्य अच्छे स्थान पर और अच्छे समय में भली प्रकार से सम्पन्न किया जा सकता है और तभी वह अच्छा फल प्रदान करता है । इस विषय में कहा गया है निशाविरामे परिभावयामि, गृहे प्रदीपे किमहम् शयामि ? श्लोक में बताया गया है कि मनुष्य को किस समय और क्या चिन्तन करना चाहिए? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy