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________________ देवत्व की प्राप्ति जो पटेल जी आए हैं, वे आँखों से परतन्त्र होते हुए भी ग्यारह की तपश्चर्या, बेले और तेला कर चुके हैं । आपकी दृष्टि से तो सम्भवतः यह सब निरर्थक है, पर यह बात नहीं है । तप के बिना कर्मों की कभी निर्जरा नहीं होती और कष्ट सहन किये बिना तप नहीं हो सकता। मराठी भाषा में कहा गया है घणाचे धाव सोसावे तेधवा देवपण पावे। खपूती नित्य दिन राती, लाबूनी नजर ध्येयांती, उद्यमें सुयश जोडावे, तेधवा देवपण पावे । कवि के कहने का भाव यही है कि कष्टसहन करने पर ही शुभ फल प्राप्त होता है। बहनें जिस सोने के बने हुए जेवरों को पहनती हैं, उसे अग्नि में तपना पड़ता है, टाचियाँ सहनी होती हैं, तब कहीं जाकर वह देह पर धारण करने योग्य बनता है । इसी प्रकार पत्थर घनों के असंख्य घाव खाकर मूर्ति के रूप में आता है और लोग उसे देवमूर्ति मानकर पूजते हैं । इन दृष्टान्तों को जानकर विचार आता है कि जड़ आभूषण और नकली देवमूर्ति बनने के लिए भी सोने और पत्थर को इतनी मार खानी पड़ती है तो असली देव बनने के लिए तो कितना कष्ट नहीं सहना पड़ेगा ? ___ आपने अन्तगढ़ सूत्र में जिन महान संतों एवं महासतियों के विषय में सुना है, उन्होंने तप की आराधना करने के लिए अनेकानेक कष्ट सहन किये हैं तथा घोर उपसर्गों एवं परिषहों का सामना किया है। उनका शरीर अधिक से अधिक कमजोर ही नहीं हुआ था, अपितु कइयों का तो नष्ट भी हो गया था। किन्तु उनके हृदय में कभी कमजोरी नहीं आई और न ही उन्होंने साधना का मार्ग छोड़ा। आत्मा के शत्रु, कर्मों का मुकाबला करने में वे महापुरुष शूरवीर साबित हुए। क्योंकि उनका लक्ष्य ही आत्मा को कर्म-मुक्त करने का रहा । इस सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य की ओर से वे कभी भी गाफिल नहीं रहे । उनका दृढ़ सिद्धान्त था-"कार्य वा साधयामि, देहं वा पातयामि ।" ___ इस प्रकार अपने निर्धारित लक्ष्य को उन्होंने कभी अपनी नजरों से ओझल नहीं किया और निरन्तर उसकी तरफ अग्रसर होते रहे । इसी का शुभ फल प्राप्त करके वे जगतपूज्य बने तथा शाश्वत सुख के अधिकारी साबित हुए । कवि का कहना भी यही है कि मनुष्य को अपने जीवन के सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिए सतत् उद्यम या पुरुषार्थ करना चाहिये तभी वह इस लोक में सुयश और परलोक में देवत्व को प्राप्त कर सकता है । आगे भी कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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