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________________ ५० आनन्द प्रवचन | छठा भाग "भाई ! मैं तो साधु हूँ रमता राम। कहीं भी और किधर भी चला जाता हूँ। पर अगर तुम्हें मेरा यहाँ आना पसन्द नहीं आया तो अभी चला जाता हूँ।" संत ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया । पर दुष्ट अपनी दुष्टता से बाज कैसे आता ? वह और भी आगबबूला होता हुआ एक पत्थर उठाकर संत को मारने दौड़ा और चिल्लाया—“एक तो अपने बाप का राज्य समझकर सीधा यहाँ चला आया और ऊपर से जबान लड़ाता है । बोल यहाँ आया ही क्यों ?" कहते हुए उस क्रूर व्यक्ति ने पत्थर उठा-उठाकर संत को मारना प्रारम्भ कर दिया। संत के शरीर पर बहुत चोटें लगी और सम्पूर्ण शरीर से रक्त बहने लगा। किन्तु उन्होंने उस व्यक्ति से कुछ नहीं कहा और धीरे-धीरे वहाँ से उठकर चल दिये। कुछ दिनों बाद वे संत उस घटना को भूल गए और फिर उसी जंगल में आ निकले । जब वे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ कि कुछ समय पूर्व उन्हें दुष्ट व्यक्ति ने पत्थरों से मारा था तो उन्हें उसकी याद आ गई । वे विचार करने लगे कि आज वह कहाँ होगा ? दिखाई तो नहीं दिया, कहीं बीमार न हो गया हो। वे उसे खोजते हुए व्यक्ति की झोंपड़ी के समीप आ गए और अन्दर घुस गये । अन्दर जाकर उन्होंने देखा कि उनकी आशंका सही थी। वह व्यक्ति खाट पर बेसुध पड़ा था। तीव्र ज्वर उसे हो रहा था। संत करुणा से भर गये और उसी क्षण से उसकी सेवा-शुश्रुषा में लग गये। जब व्यक्ति का ज्वर कुछ कम हुआ और उसने अपनी आँखें खोली तो देखा कि वही संत जिन्हें उसने मारा था उनकी सेवा में लगे हुए हैं । व्यक्ति ने चौंक कर क्षीण स्वर में कहा"आप ? मेरी सेवा कर रहे हैं ?" "हाँ, पर तुम्हें तीव्र ज्वर है बेटा ! तुम चुपचाप लेटे रहो, अशक्त बहुत हो गये हो । लो यह दूध पी लो।" । दुष्ट व्यक्ति कुछ बोल नहीं सका पर उसकी आँखों से पश्चात्ताप के आँसू बह निकले । वह विचार करने लगा-"धन्य हैं यह संत, मैंने इन्हें मारा था और अगर ये चाहते तो मुझे श्राप देकर उसी समय भस्मीभूत कर सकते थे। किन्तु इन्होंने वैसा नहीं किया और मुझे क्षमा कर दिया। ऊपर से आज मेरी सेवा में लगे हुए हैं।" तो बन्धुओ ! क्षमा ऐसी ही होनी चाहिये कि अपराधी को दंड देने की क्षमता होते हुए भी उसे क्षमा कर दिया जाय । आपने अनेक स्थानों पर पढ़ा और सुना होगा कि भगवान विष्णु को भृगु ऋषि ने लात मारी थी । क्या वे चाहते तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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