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________________ पराये दुःख दूबरे आत्मकल्याण के पथ पर चलते हैं । दूसरे मध्यम पुरुष कहलाते हैं जो स्वयं सही दिशा निर्धारित नहीं कर सकते, किन्तु संत महापुरुषों के द्वारा बताये हुए सत्पथ पर उत्साह और प्रसन्नतापूर्वक चल पड़ते हैं। किन्तु तीसरी श्रेणी के व्यक्ति ऐसे अधम होते हैं जो स्वयं की बुद्धि को तो ताक पर रखे हुए होते ही हैं पर संत पुरुषों के बार-बार समझाने और मार्ग बताने पर भी पतन की विपरीत दिशा पर निस्संकोच बढ़ते चले जाते हैं । ___अब आपको देखना है कि आप किस श्रेणी में आते हैं । हम तो सदा आपको नाना प्रकार से समझाने का प्रयत्न करते ही हैं पर आप उस पर किस प्रकार अमल करते हैं और हमारी बात कहाँ तक जीवनसात् करते हैं, इसका हिसाब आप स्वयं ही लगा सकते हैं। आपको विचार करना चाहिए कि आखिर साधु अपने ज्ञान-ध्यान एवं साधना का अमूल्य समय नष्ट करके कड़ाके की सर्दी, भीषण गर्मी और मार्ग की अनेकानेक परेशानियों को सहन करते हुए क्यों नंगे पाँव और नंगे सिर एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हैं । वे भूख और प्यास सहन करते हैं तथा आपके मानने या न मानने पर भी जिनवाणी को आप तक पहुँचाते हैं और धर्म के स्वरूप को तथा संसार की वास्तविक स्थिति को नाना प्रकार के उदाहरण देते हुए बार-बार समझाने का प्रयत्न करते हैं । ऐसा करने में आखिर उन्हें क्या लाभ है ? उलटे समय की हानि और परेशानियों का सामना ही तो उनके पल्ले पड़ता है। पर फिर भी वे आपके लिए दौड़-धूप करते हैं और जहाँ तक संभव होता है, अपना प्रयास जारी रखते हैं। इससे स्पष्ट है कि वे "पराये दुःख दूबरे" वाली कहावत चरितार्थ करते हैं । अर्थात् आप लोग अपनी आत्मा को भविष्य में प्राप्त होने वाले जिन दुखों का अंदाजा नहीं लगाते, उन्हींको दूर करने का साधु प्राणपण से प्रयत्न करते हैं। दूसरे शब्दों में आप अपने दुःख की कल्पना नहीं करते पर संत आपके दुःखों के विषय में विचार कर दुखी होते हैं। इसीलिए तुलसीदासजी ने संत के हृदय को नवनीत से भी कोमल बताया है । उन्होंने कहा है निज परिताप द्रवइ नवनीता। परदुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥ यानी नवनीत स्वयं को आँच लगते ही पिघलने लगता है, किन्तु पुनीत संत का हृदय तो दूसरे प्राणियों को दुःख की आँच लगते हुए देखकर ही द्रवित या दुखी होने लगता है। __ ऐसी स्थिति में बन्धुओ, आपको संत-पुरुषों की निःस्वार्थ शिक्षा एवं आत्महितैषी उपदेश का महत्त्व समझकर उसे जीवन में उतारते हुए आत्म-कल्याण का प्रयत्न करना चाहिए। तभी सन्तों का परिश्रम सार्थक होगा तथा आपका जीवन विशुद्ध बनेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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