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________________ पराये दुःख दूबरे धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं- 'मानव जन्म पाया है तो कुछ आत्म-साधना करो। अपनी बुद्धि और विवेक को काम में लेते हुए स्व और पर का कल्याण करने का प्रयत्न करो। दूसरों के चरखों में तेल किसलिए डालना ? यह एक कहावत है, जो यह कहती है कि औरों की तुम्हें क्या पड़ी है जो उनके भले-बुरे की फिक्र करते फिरते हो। अपनी निपटाओ वही ठीक है। एक दृष्टि से यह कहावत निरर्थक नहीं है, उचित भी है। पर केवल उस स्थिति में जब कि लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हों अथवा निरर्थक वाद-विवाद में उलझकर झगड़े झंझट में पड़े हों। उस हालत में बिना बुलाये जाकर अपनी अक्लमन्दी जाहिर करना अथवा जबरदस्ती के पंच बनकर फैसला करने का प्रयत्न करना कोई अच्छी बात नहीं है। परन्तु जो अज्ञानी हैं और सही मार्ग की पहचान न कर सकने के कारण गलत मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें स्वयं जाकर मार्ग सुझाना भी उत्तम, आवश्यक और श्रेयस्कर है। साथ ही महान परोपकार का कार्य है। उदाहरण स्वरूप अगर कोई शिशु आग की ओर बढ़ता है तो क्या आप दौड़कर उसे पीछे नहीं हटाएँगे ? अवश्य हटाएँगे । वह क्यों ? इसलिए कि शिशु अनजान, अज्ञानी और भोला है । इसी प्रकार आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाले कार्यों को करने वाला व्यक्ति चाहे वृद्ध ही क्यों न हो, वह भी अज्ञानी ही माना जाता है । अगर वह भलीभाँति यह समझ ले कि इन कार्यों को करने से उसकी आत्मा भविष्य में नाना कष्ट और भयंकर यातनाएँ भोगेगी तो वह ऐसा करे ही क्यों ? जान बूझकर तो कोई आग में कूदना नहीं चाहता। पर वह इन बातों को या तो समझ नहीं पाता या सुनकर भी अज्ञान के कारण उन पर विश्वास नहीं कर पाता। इसीलिए वह पतन के मार्ग पर बढ़ता चला जाता है और उस हालत में उसे पतित होने से बचाना सज्जन महापुरुषों का और ज्ञानियों का अनिवार्य कर्तव्य है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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