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________________ साधक के कर्तव्य ३३५ अनर्थकारी रस- लोलुपता ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में शैलकराज राजा के विषय में वर्णन आता है कि उनके पाँच सौ मांडलिक राजा भी थे । जब शैलकराज की भावना संयम ग्रहण करने की हुई तो उन्होंने अपने सभी मांडलिक राजाओं को अपना विचार सूचित किया । मांडलिक राजाओं को जब यह ज्ञात हुआ कि हमारे स्वामी शैलकराज महाराज दीक्षा ग्रहण कर रहे हैं तो उन सबने आकर शैलकराज से कहा - "महाराज ! हमने अब तक के अपने जीवन में आपकी सेवा की है और आपके स्वामित्व को स्वीकार किया है अत: अब हम लोग अपने सिर पर दूसरे स्वामी को नहीं चाहते और आपके साथ ही संयम-मार्ग को ग्रहण करने की इच्छा रखते हैं, ताकि आगे भी आपकी सेवा में रह सकें ।” हुआ भी ऐसा ही, यानी जिस प्रकार शैलकराज ने अपने पुत्र को राजगद्दी देकर दीक्षा ग्रहण की उसी प्रकार पाँच सौ मांडलिक राजाओं ने भी अपने पुत्रों को राज्य सोंपकर शैलकराज ऋषि का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया । अब शैलकराज ऋषि अपने पाँच सौ शिष्यों सहित संयम का पालन करते हुए यत्र-तत्र विचरण करने लगे किन्तु रूखा-सूखा खाते रहने के कारण उनके शरीर को रोगों ने घेर लिया । कुछ समय पश्चात् वे शिष्यों सहित विचरण करते हुए अपने शैलकनगर में आए तो उनके पुत्र ने प्रार्थना की- "आपका शरीर व्याधिग्रस्त है, अतः कुछ समय यहीं ठहरकर यहाँ के राजवैद्य से इलाज करवा लीजिये ।" शैलकराज ऋषि ने इसे स्वीकार कर लिया और अच्छे इलाज तथा उत्तम पथ्य आदि के निमित्त से उनका शरीर निरोग हो गया । किन्तु आराम कुछ समय अपने नगर में रहने के कारण वे प्रमादी बन गये और साथ-साथ उत्तमोत्तम पथ्य के सेवन करने से सरस खाद्य पदार्थों में उनकी रुचि हो गई । फल यह हुआ कि गुरुजी के व्याधि रहित हो जाने पर जब उनके शिष्यों ने वहाँ से विहार करके अन्यत्र जाने का प्रस्ताव रखा तो वे मौन रह गये और उनके बार-बार कहने पर भी वे विहार करने के लिए तैयार नहीं हुए । इस पर उनके शिष्यों ने यह सोचकर कि हमने घर-बार छोड़कर संन्यास ग्रहण किया है तो एक जगह पर ही रहने और अच्छा खाने-पीने के लिए नहीं, वहाँ से विहार कर दिया । किन्तु उन पाँचसो शिष्यों में से सबसे बड़े पंथक नाम के शिष्य ने गुरुजी का साथ नहीं छोड़ा और सबसे कह दिया " मैं तो गुरु की सेवा को ही आत्म-कल्याण का मार्ग समझता हूँ अतः इन्हीं की सेवा में रहूँगा । गुरुजी सोये हुए सिंह हैं और निश्चय ही अचानक जाग जाएँगे । इनके पास रहने से ही मेरा कुछ भी नुकसान नहीं होगा । जिस प्रकार जहर खाने से आदमी मरता है पर जहर का व्यापार करने से वह नहीं मर सकता । अपने आपको सम्हालता हुआ मैं संयम का पालन भी करूँगा और गुरु की सेवा भी ।" Jain Education International ― For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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