SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग "बन्धु ! तुम्हारा कहना यथार्थ है पर बात यह है कि जो व्यक्ति जमीन पर चलता है उसे धरातल पर भूमि ऊबड़-खाबड़ दिखाई देती है, किन्तु जब वह कुछ ऊपर उठ जाता है तो यही पृथ्वी उसे समतल दिखाई देने लग जाती है । मेरा भी यही हाल हुआ है। जब तक मेरे विचारों में परिपक्वता नहीं थी, तब तक मेरा हृदय धार्मिक एवं साम्प्रदायिक भेदों से भरा रहता था, किन्तु ज्ञान की थोड़ी सी ऊँचाई पर पहुंचते ही अब मुझे सभी धर्म समान महत्वशाली दिखाई देने लगे हैं और मेरे मन में समता तथा सद्भाव के पनप जाने के कारण मेरी वृत्ति प्रत्येक धर्म-शास्त्र से गुण एवं विशेषताएं ग्रहण करने की बन गई है।" कहने का अभिप्राय यही है कि थोड़ा-सा ज्ञान हासिल करके संतुष्ट हो जाने वाला व्यक्ति तुच्छ, संकीर्ण एवं अहं के भावों से भरा रहता है जो कि आत्मा को लाभ पहुँचाने के बजाय उलटा हानिकर बनता है। किन्तु ज्ञान प्राप्ति से कभी सन्तुष्ट न होने वाला व्यक्ति शनैः-शनैः सम्पूर्ण भेद-भाव तथा संकीर्णता आदि से ऊपर उठकर जीव और जगत के गम्भीर रहस्यों को समझता हुआ अपनी आत्मा को सरल, निष्कपट और उन्नत बना चलता है । 'व्यवहारभाष्य' में कहा भी है ___'सव्व जगुज्जोयकरं नाणं, नाणेण नज्जए चरणं ।' ज्ञान विश्व के समस्त रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है और ज्ञान से ही मनुष्य को कर्तव्य का बोध होता है । इसलिए बन्धुओ ! मुमुक्षु प्राणियों को कभी भी यह विचार नहीं करना चाहिए कि हम ज्ञानी बन गये हैं और अब अधिक ज्ञानार्जन की आवश्यकता नहीं है । उन्हें तो जीवन के प्रत्येक क्षण को कछ न कुछ हासिल करने में लगाना चाहिए । अपने ज्ञान से सन्तुष्ट न होकर जब वे अधिक से अधिक ज्ञान की गहराई में उतरेंगे, तभी उन्हें आत्म-ज्ञान का कुछ लाभ हासिल हो सकेगा। ___ अब हमारे समक्ष तीसरी बात आती है । वह यह है कि मनुष्य कभी पुरुषार्थ या कर्म से सन्तुष्ट होकर न बैठे । चाहे वह सामाजिक क्षेत्र में कार्य करे, चाहे राजनीतिक क्षेत्र में और चाहे धार्मिक क्षेत्र में । आवश्यकता इसी बात की है कि वह निरन्तर कार्य करता चला जाय। उसे प्रत्येक समय और वय के प्रत्येक भाग में कर्म करना आवश्यक है। संस्कृत भाषा के एक पद्य में कहा गया है प्रथमे नाजिता विद्या, द्वितीये नाजितम् धनम् । तृतीये नाजितम् पुण्यम्, चतुर्थे किं करिष्यसि ? श्लोक में बड़ी सुन्दर और यथार्थ सीख दी गई है कि अगर मनुष्य बाल्यावस्था में ज्ञानार्जन नहीं करता है, युवावस्था में धनोपार्जन नहीं करता है उसके पश्चात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy