SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२८ आनन्द प्रवचन | छठा भाग सामने आती है। भले ही ऐसा एक ही जन्म में न भी हो पर अगले जन्मों में भी वह प्राप्त होती है । ऐसे उदाहरण हमें शास्त्रों में मिलते हैं। इसीलिए मानव को कम से कम इच्छाएं रखनी चाहिए और साधु को तो उनका सर्वथा परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। ऐसा करने पर ही उसकी साधना निर्विघ्न रूप से आगे बढ़ सकती है। कोई कह सकता है कि संत के लिए इच्छाओं की कमी और वृद्धि क्या ? वे तो वैसे ही कम परिग्रह रखते हैं। पर यह बात नहीं है। वे जो कुछ रखते हैं उनमें भी कमी हो सकती है । वस्त्र एवं पात्र आदि जितने कम रहेंगे, बोझ उतना ही कम हो जाएगा। दस पात्र के स्थान पर आठ रखे जायें तो परिग्रह में और इच्छा में कमी आई या नहीं ? इसी प्रकार वस्त्र के लिए भी किया जा सकता है। दो वस्त्र भी कम कर दिये तो समझो इच्छा अल्प हुई । इसके अलावा इच्छा या आसक्ति भावना में होती है । एक चक्रवर्ती अगर अपने साम्राज्य एवं अपार वैभव में भी आसक्ति नहीं रखता तो वह अपरिग्रही माना जा सकता है और एक भिखारी अगर अपनी गुदड़ी में भी घोर आसक्ति रखता है तो वह परिग्रही कहा जाता है, क्योंकि उसकी उस गुदड़ी में अपार ममता होती है। इसलिए साधु के लिए तो भगवान का आदेश है कि वह अपनी इच्छाएँ अल्पतर करता चला जाय । दशवकालिक सूत्र के तीसरे अध्याय में उसके लिए कहा भी है- 'लघुभयविहारिणं।' वस्तुतः हलके होकर विहार करने से चलने में तकलीफ नहीं होती और कम से कम सामग्री होने से मन को भी सन्तोष रहता है । साधु जितना लघुभूत रहेगा उतना ही अल्प-इच्छा वाला होकर संयम के मार्ग पर बढ़ सकेगा । मर्यादा में रहना आत्मा के लिए महान कल्याणकारी होता है तथा संवर के मार्ग पर सुगमता से गति हो सकती है। प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति परिग्रह और उसके प्रति रहने वाली आसक्ति से होने वाले अनर्थ को समझकर अपनी तृष्णा एवं इच्छाओं को कम कर लेता है। मनीषी पुरुष कहते भी हैं कि व्यक्ति को तीन बातों में संतोष करना चाहिए और अन्य तीन बातों से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए । आपको जानने की उत्सुकता होगी कि वे कौनसी तीन बातें सन्तोष रखने की हैं और कौनसी नहीं ? मैं वे ही बताने जा रहा हूँ। प्रथम ये तीन बातें हैं जिनसे सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये-(१) पर-धन, (२) पर-स्त्री एवं (३) पर-निन्दा । बंधुओ ! धन के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है । आप जानते ही होंगे कि मनुष्य का अपना धन भी तृष्णा, आसक्ति एवं कषायों को बढ़ाने का कारण होने से आत्मा के लिए कर्म-बंधन का कारण बनता है । तो फिर पराया धन हड़पना या उसे प्राप्त करने की निकृष्ट इच्छा रखना उसके लिए कितना हानि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy